1. पिछले कुछ समय से और विशेष कर पिछले लोक सभा चुनाव में बहुमत हासिल करने के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में भाजपा के सत्तारुढ़ होने के बाद से उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों की आक्रामक गतिविधियों की तीव्रता बढ़ी है। संघ परिवार के नेतृत्व में उग्र हिन्दुत्व की आक्रामक अभियान में कुछ भी नया नहीं है। यह अभियान पिछले कई दशकों से जारी है हालांकि इसकी उग्रता में समय-समय पर वृद्धि या कमी होती रही है। पिछले चुनाव में भी, हालांकि कुछ इलाकों में भाजपा ने द्वेषपूर्ण उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक अभियान चलाया, लेकिन कुल मिलाकर उसने उग्र हिन्दुत्व के नारों को एक किनारे रखकर चुनाव को मुख्य तौर पर विकास के मुददे पर लड़ा। चुनाव में भाजपा की विजय के बाद अनुकूल परिस्थिति का फायदा उठाते हुए संघ परिवार ने हिन्दुत्व की अपनी आक्रामक और द्वेषपूर्ण गतिविधियां तेज कर दी हैं। एक ओर तो सफेद झूठ के सहारे इतिहास और तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश करते हुए वे हिन्दू समुदाय में अल्पसंख्यक मुस्लिम और ईसाई समुदाय के विरुद्ध नफरत पैदा करने की कोशिशें जारी रखे हुए हैं। इसके साथ ही, इन अल्पसंख्यक तबकों को और विशेष कर मुस्लिमों को दबा कर रखने के मकसद से ही वे आक्रामक अभियान चला रहे हैं। और इस लक्ष्य को ध्यान में रख कर वे मुस्लिमों, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यकों के पूजा स्थलों पर हमले करा रहे हैं और धर्मांतरण,आदि के जरिए इन समुदायों की अपनी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमले कर रहे हैं, बगैर किसी औचित्य या बहाने के अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों पर हमले कर रहे हैं, उनकी हत्या कर रहे हैं और छोटे-बड़े दंगे करवा रहे हैं। ऐसे कर वे समाज में साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन को और गहरा कर रहे हैं और इस साम्प्रदायिक विभाजन का इस्तेमाल करते हुए ‘हिन्दू राष्ट्र’ के अपने प्रिय लक्ष्य की दिशा में हिन्दू समुदाय को साम्प्रदायिक आधार पर संगठित करने की कोशिशें कर रहे हैं। इसके अलावा संघ परिवार के क्रिया कलापों का एक और खतरनाक पहलू है। वे जिस हिन्दूत्व को समाज में स्थापित करना चाहते हैं उसके आदर्शो का अर्थ है वैज्ञानिक सोच के खिलाफ अवैज्ञानिक और धार्मिक अंधविश्वासों की स्थापना। इस सोच की बुनियाद पर उन्होंने जो उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियां खड़ी की हैं वे किसी भी विरोधी विचार को फासीवादी तरीके से खत्म करने पर आमादा हैं। एक शब्द में कहें तो, संघ परिवार न केवल अत्यधिक उग्र साम्प्रदायिक है, वह पूरी तरह से प्रगति विरोधी और अलोकतांत्रिक है।
2. संघ परिवार द्वारा की जा रही गोलबंदी के ये दो मुख्य पहलू, अर्थात समाज में साम्प्रदायिक विभाजन और नफरत के माहौल को और तीखा करना और उग्र हिन्दूत्व की प्रतिक्रियावादी विचारधारा को स्थापित करने की कोशिश करना,न सिर्फ देश के सर्वहारा और मेहनतकश तबकों के लिए बेहद चिंता का विषय हैं बल्कि पूंजीवादी और निम्न पूंजीवादी समाज के तुलनात्मक रूप से प्रगतिशील और लोकतांत्रिक तबकों के लिए भी खतरनाक हैं। सर्वहारा के सामने सबसे बड़ा खतरा यही है कि उग्र हिन्दू साम्प्रदायिकता और दूसरे तरह की साम्प्रदायिकता मजदूर वर्ग और मेहनतकश तबकों के बीच साम्प्रदायिक खाई को अधिकाधिक बढ़ा रहे हैं जो वर्गीय एकता खड़ी करने की राह में एक बहुत बड़ी बाधा है। अगर वर्गीय एकता कमजोर रहती है तो न सिर्फ पूंजीपति वर्ग के हमलों के खिलाफ प्रतिरोध संघर्ष कमजोर रहता है बल्कि सर्वहारा के मुक्ति संघर्ष में भी बाधा आती है। इसके अलावा उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक विचारधारा मजदूर वर्ग को मुक्ति संघर्ष अर्थात समाजवाद के लिए संघर्ष की राह से भी भटकाती है।
3. संघ परिवार की इन गतिविधियों ने भारत में फासीवादी शासन की स्थापना की संभावनाओं की चर्चा को स्वाभाविक तौर पर मजबूत किया है। इस बारे में शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि संघ परिवार सिर्फ एक उग्र विद्वेषी साम्प्रदायिक संगठन ही नहीं है, यह एक फासीवादी संगठन है। संघ परिवार का अंतिम लक्ष्य है भारत में एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना, एक ऐसा राज्य जो न सिर्फ अन्य धार्मिक मतावलंबियों को दबा कर रखेगा बल्कि वह एक ऐसा राज्य होगा जिसका एक मुख्य आधार स्तंभ होगा हिन्दुत्व की प्रतिक्रियावादी विचारधारा के आधर पर संगठित अंधभक्तों की फौज। स्वाभाविक है कि ऐसा राज्य पूंजीवादी लोकतंत्र द्वारा प्रदत्त न्यूनतम अधिकारों को भी खत्म कर देगा जिसके परिणामस्वरूप अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता, महिलाओं के अधिकार और मजदूर वर्ग सहित तमाम शोषितों, मेहनतकशों के संघर्ष करने और अपने संगठन बनाने के लोकतांत्रिक हकों को सीमित किया जाएगा। हालांकि हरेक धार्मिक राज्य फासीवादी राज्य नहीं होता है फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि संघ परिवार द्वारा सोचा-विचारा गया हिन्दू राष्ट्र एक फासीवदी राज्य ही होगा।
4. खैर, संघ परिवार की योजना चाहे जो भी, दुनिया के अन्य देशों की तरह हमारे देश के मामले में भी यही सच है कि भारत में एक फासीवादी राज्य की स्थापना हो या न हो, इसका फैसला संघ परिवार या कोई एक संगठन नहीं करेगा, इसका फैसला शासक शिविर करेगा और उसमें भी उसका नेता बड़ा पूंजीपति वर्ग करेगा। बड़े पंूजीपति वर्ग ने अपने संकट का बोझ मेहनतकशों पर थोपने के लक्ष्य से वैश्वीकरण-उदारीकरण के हमलों को और तीखा करने के लिए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को सत्ता में बैठाया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे संसदीय व्यवस्था को खत्म कर फासीवादी शासन व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। पिछले लगभग सात दशक से भी अधिक समय से वे अत्यधिक चतुराई से जनता को धोखा देते हुए इसी संसदीय व्यवस्था के जरिए अपना राजकाज चलाते आए हैं। इस व्यवस्था में लगातार कुछ-कुछ सुधारों/बदलावों के जरिए इस संसदीय व्यवस्था को लगातार परिष्कृत कर रहे हैं ताकि लोगों को इससे बांधकर रखा जा सके। यह बात भी ध्यान में आई है कि लोक सभा चुनाव के बाद संघ परिवार की उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक गतिविधियों से बड़े पूंजीपति वर्ग को चिंता हुई है और उन्होंने नरेन्द्र मोदी और भाजपा नेतृत्व को सलाह दी है कि वे इस कट्टर तबके को नियंत्रित करें। दूसरी ओर जिस तरह से भाजपा जनता से वोट ले कर सत्ता में आने में कामयाब हुई है और कई राज्य में भी सत्तारूढ़ हुई है, उसका यह अर्थ नहीं है कि भाजपा को वोट देने वाले लोगों ने भाजपा की हिन्दूत्व की विचारधारा को भी स्वीकार कर लिया है। जनता ने मुख्यतया अपने जीवन और आजीविका की समस्याओं के चलते भाजपा को समर्थन दिया है। इसके साथ ही यह भी साफ है कि जनता संसदीय व्यवस्था के भीतर ही सीमित है। परिणामस्वरूप अभी तक जनता के बीच से इस व्यवस्था को खत्म करने की दिशा में कोई रूझान नहीं उभर रहा है।
हालांकि पिछले लगभग दो दशकों से भारतीय राजनीति में संघ परिवार की स्थिति अधिकाधिक महत्वपूर्ण बनती गई है, लेकिन शायद इन्हीं दो कारणों से यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत में फासीवाद की स्थापना की संभावनाएं बहुत ज्यादा मजबूत हुई है। लेकिन यदि देश का आर्थिक संकट और अधिक गहराता है और उसके चलते बड़े पूंजीपति वर्ग का संकट गहराता है तो संभव है कि आवश्यकता होने पर बड़ा पूंजीपति वर्ग फासीवादी शासन की ओर झुक जाए। तब उस स्थिति में संघ परिवार उसका समुचित हथियार बनेगा।
5. अगर शासक वर्ग इस तरह की फासीवादी शासन व्यवस्था थोपना भी चाहे, तो भी भारत जैसे बड़े देश में, जहां भिन्न-भिन्न राष्ट्रीयताएं और समुदाय इसी शासन व्यवस्था के भीतर अपने-अपने हितों के प्रतिनिधित्व के लिए तमाम संभव तरीकों से आपस में होड़ लगा रहे हैं, इसकी संभावना संदिग्ध है। दूसरी ओर, हालांकि समाज में हिन्दू मतावलंबियों की संख्या अधिक है, लेकिन चूंकि वे अलग-अलग जातियों और राष्ट्रीयताओं में बटे हुए हैं इसलिए इसमें संदेह है कि उग्र हिन्दूत्व की विचारधारा के आधार पर इतने बड़े समाज को एकजुट कर फासीवादी हथियार में रूपांतरित किया जा सकेगा।
6. पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर सरकार में होने के कारण भाजपा बड़े पूंजीपति वर्ग की हित रक्षा के लिए मजबूर है और चूंकि फिलहाल संघ परिवार का हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य बड़े पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुरूप नहीं है इसलिए भाजपा नेतृत्व और संघ परिवार के बीच का यह अंतर्विरोध समय-समय पर खुल कर सामने आ जाता है। इसलिए इस संभावना को मात्र एक कल्पना मानकर इसकी उपेक्षा करना सही नहीं होगा, लेकिन दूसरी ओर यह कोई बहुत बड़ा अंतर्विरोध भी नहीं है। यह एक ही परिवार के अलग-अलग हिस्सों के बीच का अंतर्विरोध है। संसदीय लोकतंत्र की अनिवार्यताओं के कारण भाजपा सिर्फ उग्र हिन्दूत्व की कार्यसूची पर निर्भर नहीं रह सकती है लेकिन,साथ ही, वह अपने मुख्य जनाधार सवर्ण और हिन्दू साम्प्रदायिक तबकों को छोड़ भी नहीं सकती है। लेकिन कुल मिलाकर संघ परिवार और भाजपा की मौजूदा गतिविधियों में सतही तौर पर दिखाई दे रहे टकराव के बावजूद संघ परिवार के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह भी जरूरी है कि भाजपा सत्ता में रहे।
7. शासक वर्ग की इस भूमिका के बावजूद संघ परिवार द्वारा उग्र हिन्दुत्व के आधार पर अभियान के जिन खतरों का इससे पूर्व उल्लेख किया गया है, उन्हें कम करके आंकना एक गंभीर गलती होगी। इस तरह की अभियान साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ा रही हैं और वर्गीय एकता को कमजोर कर रही है। उग्र हिन्दूत्व की यह अभियान न सिर्फ वर्ग एकता की राह में बाधा है, समाजवाद की दिशा में सर्वहारा के वर्ग संघर्ष के विकास में भी अवरोध है और कुल मिलाकर लोकतंत्र और प्रगति के लिए खतरा है।
8. चुंकि उग्र हिन्दूत्व के आधार पर की जा रही अभियान का अर्थ बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय का साम्प्रदायिकीकरण है और इसलिए अपनी उग्र आक्रामक भूमिका के कारण, साम्प्रदायिकता के संदर्भ में, उग्र हिन्दू साम्प्रदायिकता भारत के मेहनतकशों के लिए मुख्य खतरा है। लेकिन धार्मिक अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता और कट्टरता भी मेहनतकशों और मजदूर वर्ग के लिए खतरा है। एक ओर तो वे अपने-अपने समुदाय के मेहनतकशों को साम्प्रदायिक आधार पर गोलबंद कर वर्ग एकता को कमजोर कर रहे हैं, दूसरी ओर उनकी साम्प्रदायिक गतिविधियां हिन्दू समुदाय की मेहनतकश जनता के बीच हिन्दू साम्प्रदायिकता के और अधिक प्रसार में मदद कर रही हैं।
9. अविभाजित भारत में, 19 वीं सदी के अंत से हिन्दू साम्प्रदायिकता और मुस्लिम साम्प्रदायिकता दोनों में साथ-साथ वृद्धि हुई है। धार्मिक आधार पर मुस्लिम बहुसंख्यक पाकिस्तान का गठन इसी का परिणाम है। स्वाभाविक है कि विभाजन पश्चात भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता की एक विरासत रही है। इन साम्प्रदायिक शक्तियों का हमेशा ही यह प्रयास रहा है कि मजदूर,किसान,खेतिहर मजदूर, अन्य मुस्लिम मेहनतकश और आम तौर पर मुस्लिम समाज धार्मिक कट्टरता की पिछड़ी, अवैज्ञानिक और प्रतिक्रियावादी विचारधारा के प्रभाव तले सामुदायिक सीमाओं के भीतर ही रहे। पिछले 25-30 वर्षों में मुस्लिम/इस्लामी साम्प्रदायिकता ने खुद को और ज्यादा संगठित किया है और मुस्लिम समुदाय के निचले तबकों में अपने जाल का और अधिक मजबूती के साथ प्रसार किया है। इसमें बढ़ोत्तरी का एक प्रमुख कारण रहा है आक्रामक, हमलावर उग्र हिन्दू साम्प्रदायिकता में वृद्धि जिसकी आक्रामक अभियान 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस, 1993 के मुम्बई दंगे और 2002 के गुजरात नरसंहार जैसी भयंकर घटनाओं में प्रमुख तौर पर अभिव्यक्त होती है। उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियों द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों, विशेष कर मुस्लिम समुदाय पर, किए गए ऐसे हमलों की प्रातिक्रिया के तौर पर इन तबकों के भीतर भी साम्प्रदायिक सोच बढ़ रही है जिसका इस्तेमाल करते हुए इन अल्पसंख्यक समुदायों के भीतर की कट्टर साम्प्रदायिक ताकतें अपने प्रभाव का और फैलाव कर रही हैं।
10. मुस्लिम समुदाय के भीतर कट्टर साम्प्रदायिक शक्तियों के प्रभाव में वृद्धि के मामले में भारत का तथाकथित धर्म निरपेक्ष राज्य और धर्म निरपेक्ष कही जाने वाली पूंजीवादी और निम्न पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां भी अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकती हैं। साम्राज्यवाद के मौजूदा युग में साम्राज्यवाद पर निर्भर और उससे समझौता करने वाले पूंजीपति वर्ग का राज्य होने के नाते भारतीय राज्य कभी भी धर्म निरपेक्षता की सही नीतियों को नहीं अपना पाया है। शुरू से ही, भारतीय शासक वर्ग बड़े पूंजीपति वर्ग ने, धर्म निरपेक्षता की जो नीतियों अपनाई उनमें धर्म को राज्य के क्रियाकलापों से पृथक करने वाले असली धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत को कभी भी स्वीकार नहीं किया गया। तथाकथित धर्म निरपेक्षता की नीतियों के बारे में कहा गया कि इनका आशय सभी धर्मों के प्रति एक समान व्यवहार और सभी को प्रोत्साहन देना है। चूंकि हिन्दू समुदाय हमेशा ही बहुसंख्यक रहा है इसलिए व्यवहार में इस नीति का अर्थ रहा है हिन्दू धर्म के प्रति अपेक्षतया अधिक उदार व्यवहार। राज्य की इस भूमिका ने विभिन्न कट्टर साम्प्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा दिया है। यहां तक कि धर्म निरपेक्ष पार्टियों के तौर पर मानी जाने वाली पूंजीवादी और निम्न पूंजीवादी पार्टियां भी, इनमें सुधारवादी और संशोधनवादी पार्टियां भी शामिल हैं, अपनी अंतर्निहित कमजोरियों के कारण समग्रता में कभी भी कट्टर साम्प्रदायिक सोच के विरूद्ध खड़ी नहीं हो पाई हैं। इसके विपरीत अपने चुनावी हितों के लिए उन्होंने विभिन्न समुदायों के धार्मिक विश्वास और साम्प्रदायिक आकांक्षाओं के प्रसार और उग्र हिन्दू साम्प्रदायिकता सहित विभिन्न कट्टरपंथी साम्प्रदायिक शक्तियों के प्रसार में मदद की है। इन राजनीतिक दलों ने उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों के हमलों के कारण मुस्लिम समुदाय में उत्पन्न असहायता की भावना का इस्तेमाल अपने चुनावी हितों के लिए किया है। लेकिन वे उग्र हिन्दू साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई कारगर प्रतिरोध खड़ा कर मुस्लिम समुदाय को किसी तरह की सुरक्षा उपलब्ध कराने में असमर्थ रही हैं। इस काल का अधिक दुर्भाग्यजनक तथ्य यह रहा है कि सर्वहारा वर्ग भी अपनी असंगठित और बिखराव की स्थित के कारण उग्र हिन्दू साम्प्रदायिकता के खिलाफ किसी तरह का प्रतिरोध खड़ा कर पाने की स्थिति को छू भी नहीं पाया है। इस कारण भी मुस्लिम समुदाय के निचले तबकों में धर्मिक और साम्प्रदायिक पहचान मजबूत हुई है और इस अनुकुल माहौल का फायदा उठाते हुए मुस्लिम कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक शक्तिया मुस्लिम समुदाय पर अपनी पकड़ को और मजबूत करने में कामयाब हुई हैं।
11. एक अन्य कारण से भी भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का असर बढ़ा है। साम्राज्यवादी देश, विशेष रूप से अमरीकी साम्राज्यवाद अपने प्रभुत्व के प्रसार के लिए पिछले कई दशकों से मध्य पूर्व और आस-पास के अन्य देशों पर लगातार हमले कर रहे हैं। वे इस क्षेत्र की जनता पर निर्ममतापूर्वक हमले कर रहे हैं। हालांकि साम्राज्यवाद का लक्ष्य है यहां के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए इस इलाके पर अपने प्रभुत्व की स्थापना, लेकिन इस लक्ष्य पर परदा डालने के लिए वे यहां इस्लामी आतंकवाद को कुचलने के बहाने हमले कर रहे हैं। मुस्लिमों को ऐसा लग रहा है कि ये तमाम हमले उनके समुदाय पर हो रहे हैं। साम्राज्यवाद के खिलाफ असली प्रतिरोध का निर्माण सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा ही कर सकता है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन के प्रथम अभियान की पराजय के पश्चात, वर्तमान समय में सर्वहारा असंगठित और बिखराव की स्थिति में है। ऐसी स्थिति में मुस्लिम समुदाय में व्याप्त साम्राज्यवाद विरोधी आक्रोष/क्षोभ की भावना को मुख्यतया मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन ही स्वर दे पा रहे हैं। परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय पर कट्टरपंथी संगठनों का प्रभाव बढ़ रहा है।
दूसरे, इनमें से कुछ तबके अत्यधिक प्रभुत्व वाले साम्राज्यवाद के खिलाफ जनता के संघर्ष खड़े करने की बजाय मुख्यतया आतंकवादी क्रियाकलापों में लगे हुए हैं। इसके चलते गैर मुस्लिम जनता के बीच इस्लाम विरोधी या मुस्लिम विरोधी भावना पनपने का आधार खड़ा हो रहा है। साम्राज्यवादी और उनके गुर्गे इस अंतर्विरोध का अत्यंत ही चतुराई से इस्तेमाल कर समूचे मुस्लिम समुदाय पर आतंकवादी होने का ठप्पा लगा रहे हैं। आम मुस्लिम जनता अक्सर ही तमाम तरह के अत्याचार यंत्रणा और उत्पीड़न का शिकार बन जाती है। ऐसी घटनाओं से मुस्लिमों के भीतर सामुदायिक भावना और ज्यादा मजबूत होती है और उन पर कट्टरपंथी साम्प्रदायिक ताकतों का असर मजबूत होता है।
साम्राज्यवादी देशों में मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों की वृद्धि का एक अन्य कारण है। साम्राज्यवादी देशों में और खास कर यूरोप के कुछ देशों मे आप्रवासियों की एक बड़ी तादाद मुस्लिमों की है। हाल के समय में, विभिन्न कारणों से इन आप्रवासियों का मूल निवासियों के साथ अंतर्विरोध बढ़ रहा है। मूल निवासियों में अधिकतर श्वेत और ईसाई हैं। इससे भी मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों के फैलाव में मदद मिल रही है।
12. हमारे देश में साम्प्रदायिकता में इस तरह की वृद्धि के पीछे अनेक कारण है। इन कारणों के जटिल आपसी संबंधों और अंतःक्रिया के जरिए साम्प्रदायिकता में इस हद तक की वृद्धि हुई है। बेशक साम्प्रदायिकता में इस वृद्धि का मुख्य कारण सामाजिक-आर्थिक है। हमारे देश में पूंजीवाद का विकास हुआ है लेकिन यह लोकतांत्रिक क्रांति के जरिए नहीं बल्कि सुधार के जरिए हुआ है। इस कारण वश, प्राक्पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के अवशेष काफी हद तक समाज और अर्थव्यवस्था में अभी तक बने हुए हैं। चुंकि पूंजीवाद का विकास सुधारों के जरिए हुआ है इसलिए पुराने मूल्यों और आदर्शों का प्रभाव काफी हद तक कायम है। यहां धर्म सिर्फ व्यक्तिगत विश्वास का विषय नहीं है। सामाजिक जीवन में भी धर्म का काफी असर कायम है। इस कारण धर्म आधारित समुदायों की समाज में गहरी जड़ें हैं। दूसरी ओर पूंतीवाद के बौने विकास के कारण, पूंजीवाद से मिलने वाले लाभों पर कब्जा करने के लिए पारस्परिक होड़ उत्पन्न हो गई है जिसके चलते धार्मिक साम्प्रदायिक अस्तित्व, विभाजन और टकराव पैदा हुए हैं।
13. ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारतीय जनता को विभाजित रखने के लिए इस साम्प्रदायिक फूट का इस्तेमाल किया और उसे ज्यादा गहरा किया जिसके परिणामस्वरूप आगे जाकर देश का धार्मिक आधार पर विभाजन हुआ। साम्प्रदायिक आधार पर देश के विभाजन की घटना ने भारत और समूचे उप महाद्वीप में साम्प्रदायिकता के आज तक कायम रहने में एक महत्वपूर्ण कारक की भूमिका अदा की है। बड़े पूंजीपतियों के नेतृत्व में जो शासक वर्ग विभाजन पश्चात सत्ता में आया उसने भी धर्म को राज्य से अलग कर साम्प्रदायिकता के जड़ पर प्रहार करने की कोई कोशिश नहीं की। वे ऐसा करने में समर्थ भी नहीं थे। इसके विपरीत अलग-अलग मौकों पर उन्होंने अपने शासन के हित में साम्प्रदायिक विभाजन के साथ-साथ जाति और राष्ट्रीयता के विभजनों का भी इस्तेमाल किया और ऐसे कर इस विभाजन को और अधिक गहरा किया।
14. भारत में बड़ी पूंजीवादी पार्टियों तमाम तरह की निम्न पूंजीवादी पार्टियों और चुनावी राजनीति में रच बस चुकी तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों ने चुनावी राजनीति की धक्कमपेल के दौरान अलग-अलग सीमाओं तक साम्प्रदायिक विभाजनों का इस्तेमाल किया है और अभी भी वही कर रही हैं। चूंकि वे किसी उन्नत विचारधारा के आधार पर जनता को आकृष्ट कर उसका समर्थन हासिल करने में समर्थ नहीं हैं इसलिए वे जाति,धर्म, समप्रदाय और राष्ट्रीयताओं के आधार पर मौजूद विभाजनों का इस्तेमाल कर जनता का समर्थन हासिल करने के गंदे खेल में लगे हुए हैं। और ऐसा कर उन्होंने समाज में विद्यमान साम्प्रदायिक विभाजन को बरकरार रखने एवं और ज्यादा मजबूत करने का काम किया है।
15. साम्प्रदायिकता और विशेष कर उग्र हिन्दू साम्प्रदायिकता के उभार का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है उन क्रांतिकारी संभावनाओं का कमजोर होना जो साठ के दशक में मजदूरों और किसानों की बड़े पैमाने पर हुई गोलबंदी से उत्पन्न हुई थी। अगर हम पीछे मुड़ कर देखें, तो यह समझा जा सकता है कि क्रांतिकारी संभावनाओं का कमजोर होना अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन के प्रथम अभियान की पराजय से जुड़ा हुआ है। उसके बाद से एक ओर तो वर्ग संघर्ष लंबे समय से अत्यधिक निम्न चरण में रहा है। इस चरण में मजदूरों और गरीब देहाती जनता के जो भी संघर्ष दिखाई दिए हैं वे आर्थिक संघर्ष के दायरे में ही सिमटे रहे हैं और एक दूसरे से अलग-थलग रहे हैं। इसका एक दूसरा पक्ष यह है कि सीपीआई(एम एल) के अनेक टुकड़ों-ग्रुपों में बंट जाने के बाद से पिछले 40 वर्षों से कोई क्रंातिकारी पार्टी मौजूद नहीं है; स्वाभाविक है कि समाज में कोई क्रांतिकारी आंदोलन भी नहीं है और क्रंातिकारी कम्युनिस्टों की गतिविधियों की जो भी धारा मौजूद है वह इतनी ज्यादा कमजोर है कि समाज में उसका कोई असर नहीं है। जैसे खड़े पानी में सड़ांध भर जाती है उसी तरह से क्रांतिकारी आंदोलन और क्रंातिकारी विचारधारा की गैरमौजूदगी में मजदूरों और गरीब मेहनतकशों के बीच धर्म, जाति या राष्ट्रीयता की पहचान प्रमुख बन गई है। और सिर्फ संघ परिवार और तमाम साम्प्रदायिक संगठनों ने ही नहीं बल्कि शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली विभिन्न परर्टियों ने भी जरूरत पड़ने पर अपनी इच्छानुसार इन धार्मिक समुदायों की भावनाओं का इस्तेमाल किया है और उसके जरिए साम्प्रदायिक विभाजन और नफरत को और ज्यादा सघन बनाया है।
16. जिस तरह से साम्प्रदायिकता के अस्तित्व और उसके और ज्यादा सघन होने के वस्तुगत कारण समाज के भीतर मौजूद हैं, उसी तरह से इसके खिलाफ संघर्ष के वस्तुगत तत्व भी समाज के भीतर ही मौेजूद हैं। इस संघर्ष की सबसे अहम ताकत तो मजदूर वर्ग है ही। मजदूर चाहे किसी भी समुदाय से संबंधित हो, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली उसे एक समान उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बना देती है। यह प्रक्रिया उन्हें एक ही तरह के शोषण और उत्पीड़न का शिकार बना कर वस्तुगत तौर पर मजदूर वर्ग को धार्मिक साम्प्रदायिक विभाजनों से मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए उकसाती है। मजदूरों को खुद अपनी जिंदगी के अनुभवों से यह समझने के लिए ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती है कि तमाम पूंजीपति उनके दुश्मन हैं और अलग-अलग धर्मों के मजदूर और गरीबलोग एक दूसरे के दुश्मन नहीं हैं। लेकिन यह एहसास तभी मजबूत और प्रभावी बनता है जब मजदूर अपने संघर्ष की प्रक्रिया में आगे बढ़कर वर्ग सचेत बन जाते हैं और जब वे सही मायने में यह समझ जाते हैं कि वर्ग एकता को कायम रखना, उसका विस्तार करना और उसे सुदृढ़ बनाना क्यों और कितना ज्यादा जरूरी है। बस्तुगत तौर पर मजदूर वर्ग ही समाज की एकमात्र शक्ति है जो वर्ग एकता का निर्माण कर वर्ग संघर्ष विकसित कर उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवादी संघ परिवार सहित तमाम साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतों का प्रतिरोध कर उन्हें पराजित कर सकती है। खेतिहर मजदूर और गरीब किसानों सहित गांवों के मेहनतकशों की भारी तादाद भी खुद अपनी जिंदगी के अनुभवों से साम्प्रदायिक टकराव और नफरत विशेष रूप से दंगों का विरोध करती है। एक वर्ग के रूप में संगठित होकर मजदूर वर्ग तमाम मेहनतकश जनता को एकजुट कर साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष खड़ा कर सकता है।
17. जनता पर साम्प्रदायिकता का प्रभाव दरअसल एक विचारधारा के प्रभाव की अभिव्यक्ति है। एक ओर तो यह एक ऐसी विचारधारा है जिसकी अभिव्यक्ति धार्मिक कट्टरता, अंधविश्वास और भाग्य, ईश्वर आदी में विश्वास के जरिए होती है। दूसरी ओर इसकी अभिव्यक्ति उस नजरिए के रूप में होती है जब लोग जीवन की समस्याओं के असली कारण ढंूढने की बजाय किसी अतिमानवीय या दैवीय शक्ति को खोजने लगते हैं या दूसरे समुदायों के लोगों पर दोषारोपण करने लगते हैं, अपने समुदाय की श्रेष्ठता साबित करने के लिए दूसरे समुदायों से प्रतिस्पद्र्धा करने लगते हैं। यदि गरीब मेहनतकश अवाम को वाकई कट्टर साम्प्रदायिक शक्तियों के चंगुल से मुक्त कराना है तो उनकी पुरानी पिछड़ी विचारधारा के सामने समाजवाद की विचारधारा के आधुनिक, वैज्ञानिक और विकसित आदर्शों को स्थपित करना होगा। उन्हें यह बताना होगा कि क्यों सिर्फ एक कम्युनिस्ट समाज ही जनता को न सिर्फ वर्ग शोषण से सही मायने में मुक्त कराएगा बल्कि एक संपूर्ण मनुष्य के विकास का रास्ता भी खोलेगा।
18. लेकिन ऐसा आदर्श गरीब मेहनतकश और शोषित जनता को तभी आकृष्ट कर पाता है जब समाज में मजदूर वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा के वर्ग संघर्ष की एक जोरदार धारा मौजूद हो जो शोषण मुक्त कम्युनिस्ट समाज के निर्माण की दिशो में अग्रसर हो और साथ ही एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी भी मौजूद हो जो संघर्ष का सचेत रूप से नेतृत्व करने में सक्षम हो। आज न तो वैसे संघर्ष की धारा है और न ही कोई कम्युनिस्ट पार्टी। मजदूर वर्ग अभी भी पराजय की स्थिति से उबर नहीं पाया है। स्थिति में बदलाव के महज़ कुछ आरंभिक चिन्ह दिखाई देने शुरू हुए हैं। बदलाव की यह प्रक्रिया आर्थिक संघर्ष के चरण में शुरू हुई है। आर्थिक संघर्ष के चरण में भी, बेशक आंशिक तौर पर ही सही, परिस्थिति वश मजदूर साम्प्रदायिक विभाजन के खिलाफ लड़ाकू एकता खड़ी करने के लिए कोशिश करेंगे।
लेकिन सही मायने में वर्गीय नजरिए से राजनीतिक स्तर पर साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष खड़ा करने के लिए विकसित वर्ग चेतना की जरूरत है, इस बात के समझने की जरूरत है कि मजदूर वर्ग का वस्तुगत लक्ष्य है शोषण मुक्त समाज का निर्माण। वर्तमान में मजदूर वर्ग के जो संघर्ष आर्थिक संघर्ष के स्तर पर शुरू हुए हैं वे निश्चित तौर पर आनेवाले दिनों में समग्रता में देशव्यापी संघर्ष की ओर आगे बढ़ेंगे। वर्ग संघर्ष की इस उन्नति और इससे हासिल अनुभवों के जरिए मजदूर वर्ग इससे सबक लेता हुआ आगे बढ़ेगा और उच्चतर वर्ग चेतना की दिशा में अग्रसर होगा। जब क्रांतिकारी संघर्ष की एक धारा का निर्माण होगा और मजदूर वर्ग की पार्टी बनेगी, तब इस पार्टी के नेतृत्व में मजदूरों-किसानों की एकजुट ताकत के जरिए असली साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष जोर पकड़ेंगे। साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता के वर्ग संघर्ष का अविभाज्य अंग है और सिर्फ समाजवाद की दिशा में ही आगे बढ़ता हुआ यह अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा।
19. वर्ग संघर्ष की मौजूदा अवस्थिति और कम्युनिस्ट पार्टी की गैर-मौजूदगी में किसी भी एक ग्रुप के लिए यह असंभव है कि वह एक असली सांप्रदायिकता विरोधी अवस्थिति के आधार पर न सिर्फ पिछड़ी जनता के बड़े तबकों को संगठित करे बल्कि मजदूर वर्ग की बड़ी तादाद को भी संगठित करे और साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष खड़ा करे। सिर्फ एक असली कम्युनिस्ट पार्टी ही ऐसा कार्य पूरा कर सकती है। ऐसी स्थिति में हम यह कर सकते हैं कि संघ परिवार की उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक और फासीवादी राजनीति के वारे में मजदूर वर्ग को सचेत करें और विभिन्न समुदायों के मजदूरों और गरीब ग्रामीणों के अगुवा तबकों को कट्टरपंथी साम्प्रदायिक ताकतों के चंगुल से अलग कराते हुए तमाम तरह की साम्प्रदायिक कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ अभियान चलाएं ताकि मजदूर वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले अगुवा दस्ते को मजबूत बनाया जा सके और उसका विस्तार किया जा सके। जबरदस्त प्रतिकूल हालात के बावजूद बगुवा मजदूरों को सोचने पर विवश करना संभव है क्योंकि वे अपने जीवन के अनुभवों से यह समझ सकते हैं कि अलग-अलग समुदायों में बंटे होने के बावजूद शोषित जनता के हित एक समान हैं और मेहनतकश अवाम की एकता बेहद जरूरी है।
20. पूंजीवाद के विकास ने समाज के पूंजीवादी और निम्न पूंजीवादी तबकों में बैज्ञानिक सोच, बेहतर जिंदगी, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अनुभूति को जन्म दिया है। इस कारण पूंजीवादी और निम्न पूंजीवादी तबकों के बीच से भी ऐसा एक प्रबुद्ध वर्ग उभर रहा है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक अनुभूति और वैज्ञानिक सोच के कारण साम्प्रदायिकता के खिलाफ खड़ा हो रहा है। मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता के अलावा इस तबके में भी समाज में साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष के तत्व वस्तुगत तौर पर मौजूद हैं। इस तबके की तादाद फिलहाल थोड़ी है लेकिन फिर भी यह संघ परिवार की उग्र हिन्दुत्व की विचारधारा के विरूद्ध है। निम्न पूंजीवादी बुद्धिजीवियों के एक हिस्से को भी संघ परिवार की उग्र हिन्दू साम्प्रदायिकता और फासीवादी आदर्शों और आम तौर पर तमाम तरह की साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक अवस्थिति अपनाने के लिए मनवाया जा सकता है। उन्हें आकर्षित करने और सोचने के लिए तैयार करने की कोशिशें मुख्यतः एक उन्नत विचारधारा के दृष्टिकोण से होनी चाहिए न कि वर्ग एकता के नजरिए से। लेकिन उनके सामने यह भी जरूर साफ किया जाना चाहिए कि क्यों सिर्फ मजदूर वर्ग ही असली साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन का निर्माण कर सकता है।
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