16 सितंबर की मध्यरात्रि को पुलिस ने जादवपुर विश्ववि़द्यालय में घुस कर निहत्थे छात्रों पर क्रूरतापूर्वक हमला किया और विश्वविद्यालय के उपकुलपति को छात्रों के घेराव से मुक्त कराने के लिए अनेक छात्रों को गिरफ्तार कर लिया। इस तरह के अनेक उदाहरण हैं जब राज्य सत्ता ने छात्रों या जनता के अन्य तबकों के लोकतांत्रिक संघर्षों के दमन के लिए उन पर हमले किए हैं। लेकिन इस तरह की कोई दूसरी घटना अपवाद ही होगी जब छात्रों के लोकतांत्रिक संघर्ष का दमन करने के लिए पुलिस ने किसी कालेज या विश्वविद्यालय में घुस कर निहत्थे छात्रों को इस तरह इतनी निर्दयतापूर्वक पीटते हुए गिरफ्तार किया हो। अनेक समाचार चैनल इस घटना को इस रूप में पेश कर रहे हैं मानों पुलिस की यह सारी कार्यवाही सिर्फ उपकुलपति के आदेश पर ही हुई हो। घटनाक्रम के विवरण से बेशक यह साफ है कि विश्वविद्यालय परिसर में हुई इन घटनाओं के लिए मुख्य रूप से और प्रत्यक्ष तौर पर उपकुलपति ही जिम्मेवार हैं। लेकिन इसके साथ ही यह बात भी विश्वसनीय नहीं लगती कि सिर्फ उपकुलपति के अनुरोध पर ही पुलिस के आला अफसरों ने इतनी जोरदार कार्यवाही की होगी। बाद में जिस तरह से राज्य के शिक्षा मंत्री ने पुलिस हमले की तरफदारी की और उपकुलपति के इस्तीफे की मांग का विरोध करते हुए उसकी हिमायत की, उससे साफ हो जाता है कि छात्र आंदोलन के दमन के लिए किया गया हमला बेशक उपकुलपति के जरिए हुआ हो, उसमें सरकार की हिस्सेदारी भी थी। तुणमूल छात्र परिषर और तुणमूल कांग्रेस के अन्य संगठनों ने भी जिस तरह से सर्वोच्च नेतृत्व के निर्देशों पर राज्य प्रशासन के साथ मिलकर छात्र आंदोलन पर हमला किया है, उससे भी यह स्पष्ट हो जाता है। वे हमला करने पर आमादा हैं क्योंकि पिछली वाम मोर्चा सरकार की ही तरह तुणमूल कांगेेस पार्टी और उसकी सरकार न सिर्फ यह नहीं चाहती कि छात्रों या जनता के अन्य तबकों के बीच कोई स्वतंत्र शक्ति उभरे या वे अपनी आवाज उठाए, बल्कि उन्होंने इस बारे में भी कमर कस रखी है कि वे ऐसे तमाम प्रयासों को रोकेंगे और कुचल देंगे। लोकतंत्र के लिए अगली कतारों में खड़े होकर संघर्ष करने वाले मजदूर वर्ग के एक छोटे प्रतिनिधि हिस्से के तौर पर हम छात्रों के लोकतांत्रिक आंदोलन पर सरकार-पुलिस प्रशासन के इन हमलों की कड़ी निंदा करते हैं। हम इसकी निंदा इसलिए और भी ज्यादा करते हैं क्योंकि यह कोई अकेली घटना नहीं है, यह मजदूरों और समाज के अन्य तबकों के लोकतांत्रिक संघर्षो पर हो रहे इमलों की श्रृंखला की एक कड़ी है। इस बारे में रंच मात्र भी संदेह नहीं हो सकता है कि अगर ऐसे हमलों का विरोध नहीं किया गया, तो भविष्य में और बड़े हमले होंगे और जनता के अलग-अलग तबकों के रहे -सहे अधिकार भी छीन लिए जायेंगे।
आशा की बात यह है कि छात्रों ने अपने संघर्ष पर विश्वविद्यालय अधिकारियों और सरकार के हमलों को चुप रह कर बर्दाश्त नहीं किया है। अलग-अलग कालेजों के हजारों छात्र जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों पर हुए हमलों के खिलाफ एकजुट हुए हैं और सक्रिय तौर पर संघर्ष में शामिल हुए हैं। कलकत्ता शहर की मुख्य सड़कों पर छात्रों के जुलूस-प्रदर्शनों की बाढ़ जी आ गई है। 1960 और सत्तर के दशकों में हुए छात्र आंदोलनों के बाद से इतने बड़े पैमाने पर छात्र संघर्ष देखने में नहीं आये हैं। 20 सितंबर के दिन कलकत्ता के केन्द्रीय भाग की प्रमुख सड़कों पर लगभग 35 से 40 हजारों छात्रों ने विरोध प्रदर्शन में भाग लिया और इस प्रदर्शन में जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ प्रेसीडेंसी कालेज और अनेक निजी इंजीनियरी कालेजों के छात्र शामिल थे। इनके अलावा ऐसे अनेक अन्य सामान्य कालेजों के छात्रों ने भी इस प्रदर्शन में हिस्सेदारी की जहां स्थापित संसदीय दलों से जुड़े छात्र संगठनों के अलावा कभी भी छात्रों की स्वतंत्र पहलकदमी देखने में नहीं आई थी। हमारा मानना है कि छात्र शक्ति का जो विस्फोट इस बार हुआ है, वह यही नहीं रूकेगा और आने वाले दिनों में यह और ज्यादा बड़ा और व्यापक हो कर समाज के अन्य तबकों के लोकतांत्रिक संघर्षो के साथ जुड़ेगा।
विभिन्न संसदीय विरोधी दलों और उनके छात्र संगठनों ने अपने संकीर्ण हितों के लिए इस पुलिस दमन के खिलाफ शोर मचाना शुरू किया है। वाम मोर्चे के छात्र संगठनों ने पहले ही छात्र हड़ताल का आहवान कर दिया है। लोकतंत्र पर हमले के खिलाफ उनके घड़ियाली आंसू वाकई हास्यास्पद हैं। इससे पहले 1978 में वाम मोर्चा युग की शुरूआत में भी पुलिस ने इसी तरह जादवपुर विश्वविद्यालय में घुस कर छात्रों को पीटा था। उसके बाद से सीपीआई(एम) के कार्यकताओं और पुलिस ने अनेक बार छात्रों और जनता के अन्य तबकों के संगठित संघर्षों का दमन किया था। इस तरह की घटनाएं जादवपुर विश्वविद्यालय में अनेक बार घटी हैं। यह सारा इतिहास किसी से छिपा हुआ नहीं है। 2005 में भी छात्रों पर पुलिस दमन हुआ था। दूसरी ओर लोकतंत्र के मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा का नजरिया और इतिहास इतना ज्यादा स्पष्ट है कि उसे दोहराने की जरूरत नहीं है। इसलिए जब ये तमाम पार्टियां लोकतंत्र की बात करती हैं तो यह समझना मुश्किल नहीं होता है कि वे छात्रों के आक्रोष और उनके आंदोलन का भविष्य में चुनावी फायदे और सत्ता संघर्ष के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। हाल का एक उदाहरण सबके दिमाग में ताजा होगा। तृणमूल कांगे्रस ने किस तरह से सत्ता हासिल करने के लिए सिंगूर-नंदीग्राम का इस्तेमाल किया और किस तरह से बाद में उसका असली रंग उजागर हुआ और इन तमाम राजनीतिक दलों की भूमिका से अब उनकी कलई उतर गई है।
अभी तक जादवपुर विश्वविद्यालय के संघर्षरत छात्रों ने इन पार्टियों को आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में नहीं लेने दी है। इसके विपरीत उन्होंने इन सभी दलों से दूरी बरतते हुए अपनी स्वतंत्र अवस्थिति कायम रखी है। लेकिन आगामी दिनों में भी छात्रों को और विशेषकर संघर्ष की अगली कतारों में खड़े छात्रों को इस खतरे के प्रति सचेत रहना होगा। ऐसा विशेष रूप से इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मौजूदा परिस्थिति में यह खतरा वाकई मौजूद है। चूंकि संघर्ष की पक्षधर ताकतंे अभी कमजोर हैं और उनके सामने सरकार और सत्तारूढ़ दल जैसे ताकतवर विरोधी हैं, इसलिए, हालांकि यह संघर्ष स्वतंत्र शक्तियों के बूते पर शुरू हुआ है, प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्ष के विकास के साथ ही बाहरी शक्तियों पर निर्भर रहने का रूझान अधिकाधिक जोर पकड़ सकता है। नंदीग्राम संघर्ष के दौरान यही रूझान देखा गया था। ज्यादा खतरनाक बात यह है कि कुछ कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी समूह संघर्ष पर जनता का नियंत्रण कायम रखने के बारे में ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। इसी कारण एक वक्त पर उन्होंने तृणमूल कांगेे्रस के साथ मिल कर संघर्ष चलाया जिससे तृणमूूल कांगे्रस को एक जुझारू शक्ति की छवि हासिल करने में मदद मिली और अब वे वाम मोर्चा दलों और उनके संगठनों या ऐसे दलों से टूट कर बाहर निकले कुछ इसी तरह के संसदीय दलों या समूहों के साथ गठजोड़ कर रहे हैं। इस संघर्ष से जुड़े छात्रों को तमाम कोशिशें कर यह सुनिश्चित करना होगा कि ये विरोधी पार्टियां या उनके अनुयायी या अन्य बाहरी ताकतें उनके आंदोलन पर काबिज न हो पाएं। यह तभी संभव होगा जब छात्रों का अपने आंदोलन पर पूरा नियंत्रण हो। यह आंदोलन कितना आगे जायेगा, इससे कहां रोकना होगा, इसका फैसला खुद छात्रों को मिलकर करना होगा और ऐसा करते समय उन्हें अपनी ताकत को ध्यान में रखना होगा। छात्रों की एकजुट ताकत के आधार पर इस आंदोलन के आगे बढ़ने की एक सीमा है। चंद छात्रों की ताकत के बूते पर उससे आगे जाना दुस्साहसवाद होगा, उसी तरह से अति सावधानी बरतते हुए आंदोलन को समय पूर्व रोकना भी एक गलत कदम होगा। दोनों ही स्थिति में इसका परिणाम छात्रों में हताशा और फूट होगा। यदि छात्र अपनी ताकत के समुचित आकलन के आधार पर आन्दोलन को आगे बढ़ाते हैं, तो बाहरी शक्तियों पर निर्भर रहने की कोई जरूरत नहीं होगी। और वे ऐसी संभावना को भी रोक पाएंगी कि कोई राजनीतिक दल अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के लिए आंदोलन को अगवा कर ले।
स्वाभाविक है कि स्वतंत्र रूप से संगठित होने की छात्रों की कोशिशों ने तुणमूल कांग्रेस को बेचैन कर दिया है। इसी कारण सीपीआई (एम) और वाम मोर्चे की तरह तृणमूल कांगे्रस ने भी सरकार की प्रशासनिक शक्तियों और पार्टी के गुण्डों ंका भरपूर इस्तेमाल करते हुए इस आंदोलन के दमन के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। इस वजह से इन शक्तियों का मुकाबला किए बगैर यह आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाएगा। बेशक छात्रों के बीच से भी प्रतिरोध की शक्तियां उभर कर सामनेे आई हैं। विभिन्न कालेजों के छात्र स्वतः स्फूर्त तौर पर जादवपुर के छात्रों के समर्थन में आगे आए हैं। अभी तक कुछ प्रसिद्ध/प्रमुख कालेजों के छात्र ही ऐसे आंदोलनों के प्रति एकजुटता दिखाते रहे हैं। इस बार एकजुटता का यह प्रदर्शन इतने तक सीमित नहीं है। निजी इंजीनियरी कालेजों के छात्र, कलकत्ता और आस-पास के सामान्य कालेजों के छात्रों ने भी जादवपुर छात्रों के समर्थन में आंदोलन शुरू कर दिए हैं । अनेक कालेजों में उनके समर्थन में हड़ताले चल रही हैं। अगर छात्रों की यह भारी तादाद जादवपुर के छात्रों के साथ संगठित होकर तमाम हमलों का प्रतिरोध कर पाए, तो यह संगठित शक्ति सरकार की ताकतवर शक्ति का भी सामना कर सकती है। ऐसा करने के लिए इस संघर्ष के नेतृत्वकारी छात्रों का यह पहला कार्य होगा कि वे मौजूदा संघर्ष की मांगों के आधार पर छात्रों की इस शक्ति के स्वतः स्फूर्त उभार को संगठित करें । बेशक इस संघर्ष की प्रमुख ताकत जादवपुर के छात्र ही हैं। इसलिए विश्वविद्यालय प्राधिकारियों, सरकार, सत्तारूढ़ राजनीतिक दल और अन्य राजनीतिक दलों के मंसूबों का सामना करते हुए, इस आंदोलन के नेतृत्व का प्रमुख कार्यभार होगा छा़त्रों को एकजुट रखना और उनकी संघर्ष की शक्ति को बरकरार रखना। लेकिन इसके साथ ही अन्य कालेजों से आई छात्रों की एक बड़ी तादाद को अगर संगठित नहीं किया जाता है और संघर्ष में उसकी सक्रियता अगर कायम नहीं रखी जाती है तो सरकार और तुणमूल कांग्रेस की शक्तियोें को रोक पाना संभव नहीं होगा। बेशक यह सब कहना आसान है। लेकिन शायद इसके सिवाय कोई चारा भी नहीं है।
यह भविष्यवाणी करना संभव नहीं है कि जादवपुर छात्रों के पुलिस दमन के खिलाफ चल रहे इस छात्र संघर्ष की परिणति क्या होगी? स्वाभाविक तौर पर हमारी आशा है कि वे राज्य प्रशासन और तुणमूल कांग्रेस द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन के खुलेआम समर्थन के बावजूद विश्वविद्यालय प्राधिकारियों के अन्यायपूर्ण उत्पीड़न का विरोध करने में सफल होंगे। नतीजा चाहे जो भी हो, जिस तरह से छात्र सड़कों-गलियों में उतरना शुरु किए हैं वह रूकेगा नही। समाज के अन्य तबकों की ही तरह छात्र आंदोलन भी कई दशकों से सुषुप्तावस्था में रहा है। छात्रों के जो थोड़े बहुत आंदोलन हुए भी है वे मुख्यतया कलकत्ता में जादवपुर और प्रेसीडेंसी जैसे उच्च तबके के कालेजांे तक ही सीमित रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, विशेषकर नंदीग्राम-सिंगूर संघर्ष के दौर से, और बाद में ‘‘आक्यूपाई वाॅल स्ट्रीट’’, आदि संघर्षों के चरण में, छात्रों के बीच मंथन की प्रक्रिया बढ़ी है। लेकिन यह सब मुख्यतया उच्च तबकों के ‘‘एलीट’’ कालेजों के छात्रों के बीच ही हुआ है। और यह भी संवेदनशील तबकों तक ही सीमित रहा है जिन्होंने भिन्न-भिन्न सामाजिक समस्याओं पर कुछ प्रचार कार्यक्रम या ज्यादा से ज्यादा कुछ आंदोलनात्मक कार्यक्रम चलाए। कई सालों के बाद यह पहला मौका है जब आम छात्र संघर्ष के मैदान में दिखाई दिया है। और स्वाभाविक तौर पर वे एक ऐसे मुद्दे पर आगे आए हैं जो उनके छात्र जीवन से सीधे-साीधे जुड़ा हुआ है। यहां इस संघर्ष की दो विशिष्टताओं का अवश्य उल्लेख किया जाना चाहिए। पहली, इस बारे में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि छात्र जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों के प्रति एकजुटता में सामने आये हैं। लेकिन अगर वे खुद भी छात्र जीवन की विभिन्न समस्याओं से क्रुुद्ध नहीं होते तो जादवपुर छात्रों के पुलिस दमन की इस घटना पर वे इतने ज्यादा बेचैन और आंदोलित नहीं होते। बेरोजगारी शिक्षा के लिए समुचित माहौल का अभाव, कालेजों में स्थापित राजनीतिक दलों के संगठनों द्वारा डराया-धमकाया जाना, शिक्षा क्षेत्र की अन्य समस्याएं और ढेर सारी सामाजिक समस्याएं - इन सबके कारण छात्रों के बीच आक्रोश बढ़ता जा रहा है। और यही आक्रोष है जो अलग-अलग मौकों पर कालेजों में स्वतःस्फूर्त विस्फोट की शक्ल में उजागर होता है, किसी संगठित आंदोलन के रूप में नहीं। इस कारण जादवपुर छात्रों पर पुलिस के हमले से उन्हें चोट पहुंची है, इसने उन्हें क्रोधित किया है और गहरे में पैठा वह गुस्सा या आक्रोष सड़कों पर फूट पड़ा है। इस आदोलन का चाहे जो भी नतीजा हो ये छात्र, जिन्होंने स्वतंत्र रूप से उठ खड़े होना शुरू किया है यहीं नहीं रूकेंगे। अगर वे एक सीधे रास्ते पर न भी चल पाए, लड़खड़ाते हुए ही सही, वे चलेंगे जरूर। दूसरे, इस आंदोलन की मुख्य ताकत बेशक जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र ही हैं। इस विश्वविद्यालय में छात्र आंदोलन के इतिहास के कारण, वहां पर स्थापित संसदीय पार्टियों और उनके अनुयायी छात्र-संगठनों का विरोध करने की एक प्रवृत्ति रही है। मौजूदा संघर्ष के नेतृत्व के भीतर भी विद्यमान शासक व्यवस्था का विरोध करने की प्रवृत्ति मौजूद है। लेकिन चूंकि मौजूदा संघर्ष का बड़ा हिस्सा नीचे से स्वतःस्फूर्त तरीके से विकसित हो रहा है, इसलिए संघर्षरत छात्रों के सामने भी समग्रता में कोई स्पष्ट दिशा या लक्ष्य नहीं है। फिर भी, निश्चित तौर पर वे स्थापित राजनीतिक दलों के विश्वासघात, भ्रष्टाचार और दोहरेपन के कारण उनके खिलाफ हैं। और इसी कारण प्रकट तौर पर उनका एक अराजनीतिक चरित्र दिखाई देता है। परिणामस्वरूप इस आंदोलन का चरित्र मुख्य तौर पर स्वतंत्र है - स्थापित राजनीतिक दलों से स्वतंत्र।
यह स्पष्ट है कि छात्रों के इस आंदोलन के पीछे के कारकों का असली या संपूर्ण समाधान इस व्यवस्था के भीतर संभव नहीं है। उसके लिए छात्रों को एक सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के लक्ष्य के लिए मौजूदा अलोकतांत्रिक व्यवस्था को खत्म करने के लिए संगठित होना होगा। अगर समूचे समाज में क्रांतिकारी संघर्ष का जोरदार प्रवाह हो रहा होता तो छात्रों के लिए इस दिशा में संगठित हो पाना संभव हो सकता था। मौजूदा समय में ऐसा कोई प्रवाह मौजूद नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन पराजय के चरण से होकर गुजर रहा है। एक समय था जब छात्रों के बीच समाजवाद के प्रति आकर्षण था। आज यह आकर्षण अनुपस्थित है। यहां तक कि क्रांति और समाज में आमूल-चूल बदलाव के लक्ष्यों के प्रति भ्रम, संदेह और प्रश्न चिन्ह लगे हुए हैं। स्वाभाविक तौर पर ऐसी स्थिति में यह आशा करना गलत होगा कि बड़ी तादाद में आम छात्र सामाजिक परिवर्तन की दिशा में संगठित होंगे। इसकी बजाय उन्हें अपनी मौजूदा समस्याओं पर या उसे उत्पन्न आक्रोष के आधार पर संगठित होना चाहिए। इसके भीतर अनेक रूझान मौजूद रह सकते हैं या मौजूद रहेंगे। यह सोच भी मौजूद रहेगी कि उनकी समस्याओं का समाधान मौजूदा व्यवस्था के भीतर संभव है। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। वे छात्र, विशेषकर आम छात्र जो संघर्ष के मैदान में उतरे हैं, असली जिदंगी के संघर्षों के अनुभव के बिना, वे समाज में क्रांतिकारी बदलाव के लक्ष्य की ओर आगे नहीं बढ़ेगें अब अगर इस संघर्ष में ऊपर से समाज में ऐसे क्रांतिकारी बदलाव की कोई दिशा जोड़ी जाती है तो उससे अनावश्यक फूट और बिखराव उत्पन्न होगा। यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि छात्रों या किसी अन्य तबके के लोकतांत्रिक संघर्षों के भीतर बुनियादी बदलाव या क्रांतिकारी रूपांतरण की दिशा सिर्फ मजदूर वर्ग द्वारा ही जोड़ी जा सकती है और उस स्थिति में जब वर्ग संघर्ष की प्रवृत्ति मौजूद हो और मजदूर वर्ग की वर्ग सचेत सेना उनकी अपनी वर्गीय पार्टी के तहत संगठित हो। कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी समूहांे (ग्रुपों) की मौजूदा समूह (ग्रुप) अस्तित्व की स्थिति में यह संभव नहीं है। ऐसा कोई प्रयास करने का अर्थ होगा समूह विशेष की राजनीति को छात्रों तक ले जाना और छात्रों को अपने-अपने समूह के संगठनों के दायरे में लाना। ऐसा कोई भी प्रयास छात्रों की मौजूदा संघर्षकारी एकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और संघर्ष के जरिए उनके विकास की प्रक्रिया को वाधित करेगा। अलग-अलग समूहों को इस बारे में सचेत होना चाहिए और साथ ही छात्रों को भी सतर्कता बरतनी चाहिए कि ऐसे किसी प्रयास के जरिए ये समूह छात्रों की एकता मंें बाधा न डाल पाएं।
निष्क्रियता के एक लंबे दौर के बाद, जनता के विभिन्न तबकों ने अब एक बार फिर से संघर्ष के मैदान में उतरना शुरू कर दिया है। अभी तक इसकी रफ्तार धीमी है लेकिन समाज के विभिन्न तबकों ने खुद को स्थापित पार्टियों से अलग करते हुए अब स्वतंत्र तौर पर इकट्ठे होना शुरू कर दिया हैं । जनता के विभिन्न लोकतांत्रिक तबकों के संघर्षों को एकजुट करते हुए श्रमिक वर्ग द्वारा उन्हें आमूल-चूल क्रांतिकारी बदलाव की दिशा में ले जाया जा सकता है जब श्रमिक वर्ग का अगुआ दस्ता अपनी वर्ग पार्टी के भीतर संगठित हो। मौजूदा वक्त में वह पार्टी अनुपस्थित है। लेकिन मजदूर वर्ग ने निश्क्रियता के लंबे दौर से बाहर निकलना शुरू कर दिया है। मजदूर न सिर्फ संघर्ष के मैदान की ओर बढ़ना शुरू किए हैं बल्कि वे खुद को पुरानी, स्थापित पार्टियों से अलग कर खुद के स्वतंत्र संगठन खड़े कर रहे हैं और संघर्ष खड़े कर रहे हैं। उनका यह संघर्ष अभी आर्थिक संघर्ष के चरण में है। चूंकि वे यह सब अपनी पार्टी की अनुपस्थिति में कर रहे हैं, इसलिए ऐसा स्वाभाविक है। जैसे - जैसे साम्राज्यवादियों और उन पर निर्भर बड़े पूंजीपतियों के हमले तेज हो रहे है, वैसे-वैसे ही ये संघर्ष अब सीमित नहीं रहेंगे, पूंजीपतियों के हमलों का सामना करने के लिए ये आगे बढ़ेंगे, पूरे देश में मजदूरों को एकजुट करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। मजदूर खुद अपने संघर्षों के जरिए सीखेंगे और आने वाले दिनों में खुद को एक वर्ग के रूप मंे संगठित करने और अपनी वर्गीय पार्टी बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। यह कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों का काम है कि वे मजदूर वर्ग के उभार की इस प्रक्रिया में मद्द करे और उन पर किसी समूह विशेष की राजनीति को न थोपें। उनका काम है आगे बढ़ते हुए मजदूर वर्ग को उसके अनुभवों का सार-संकलन करने की प्रक्रिया को पूरा करने में मदद देना मजदूर वर्ग के संघर्ष का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि मजदूर वर्ग एक वर्ग के रूप में संगठित होकर अपनी वर्ग पार्टी का गठन करें। और सिर्फ मजदूर वर्ग ही नहीं, समाज की विभिन्न लोकतांत्रिक शक्तियो का भविष्य भी इसी पर निर्भर है, क्योंकि यह जागृत होने की प्रक्रिया में है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मजदूर वर्ग ही वह अकेला वर्ग है जो तमाम संघर्षों को एकजुट व संगठित करते हुए उन्हें समाज के आमूल-चूल व क्रांतिकारी रूपांतरण की दिशा में आगे बढ़ा सकता है और उसके जरिए संघर्षकारी जनता की अंतर्निहित मांगो और आकांक्षाओं को उनकी परिणति तक पहुंचा सकता है ।
24 सितम्बर, 2014
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