पिछले कुछ वर्षों से हम, न केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया में, श्रमिक आंदोलन में एक बदलाव देख रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन के प्रथम अग्रगामी अभियान की पराजय के बाद श्रमिक वर्ग हताशा, निष्क्रियता और संघर्ष विहीनता के दौर में प्रवेश कर गया था और साम्राज्यवादी और अन्य देशों के पूंजीपतियों के एकतरफा निर्मम हमलों के सामने इसे एक लंबे समय तक जोरदार पराजय का सामना करना पड़ा । अब वे इस दौर से निकल कर दोबारा से वर्ग संघर्ष के मैदान में उतर रहे हैं । हालांकि भारत में तो अमेरिका और युरोप की तरह स्पष्ट रूप से संघर्ष की लहरें नहीं दिखाई दे रही है, फिर भी हमारे देश के श्रमिक अंादोलन में भी पिछले कुछ वर्षों से स्पष्ट बदलाव दिखाई दे रहा है । न सिर्फ संघर्ष की गतिविधियों के स्तर में वृद्धि हुई है, बल्कि संघर्ष की गुणवत्ता में भी बदलाव आए हैं और संघर्षों में कुछ महत्वपूर्ण विशिष्टताऐं दिखाई दे रही हैं। "श्रमिक आंदोलन में एक नई रूझान-कम्यूनिस्ट क्या करेंगे ? " पुस्तिका में हमने इस बारे में विस्तार से चर्चा की है कि किस तरह से श्रमिक पुरानी मौजूदा पार्टियों के नेतृत्व द्वारा विश्वासघात के अपने अनुभवों का संचेतन और अर्द्धचेतन तौर पर सार-संकलन करने की प्रक्रिया में स्वतंत्र रूप से खुद अपने संघर्ष और संगठन खड़े करने के प्रयास कर रहे हैं । उस आलेख में हमने यह चर्चा भी की है कि वे किस तरह से अपने नए संघर्षों और संगठनों पर अपना नियंत्रण रखने की कोशिश कर रहे हैं । हमने यह भी चर्चा की है कि पिछले चार दशकों से एक असली कम्युनिस्ट पार्टी की गैर मौजूदगी की पृष्ठभूमि में श्रमिक आंदोलन की इस धारा का महत्व और भी ज्यादा हो जाता है । ये संघर्ष न सिर्फ श्रमिक वर्ग द्वारा दोबारा से उठने की कोशिशों की शुरूआत को दर्शाते हैं बल्कि ये श्रमिक वर्ग द्वारा पुरानी संशोधनवादी, सुधारवादी पार्टियों और उनकी राजनीति से मुक्ति पाने के चेतन और अर्द्ध-चेतन प्रयासों की अभिव्यक्ति है । ऐसी स्थिति में कम्यूनिस्टों के सामने जो कार्यभार है वह है-श्रमिकों के इन प्रयासों को सचेतन धरातल तक ले जाने में मदद करना, श्रमिक वर्ग को जागरूक बनाना, श्रमिकों के इस नए आंदोलन को विकसित करना और उसे नेतृत्व देना ताकि यह शोषण और वर्ग शासन के खात्में के लिये समग्र बड़े संघर्ष की दिशा में आगे बढ़े । उस आलेख में हमने इन कामों के महत्व का मुद्दा उठाया था । अब श्रमिक आंदोलन की वर्तमान परिस्थिति के संबंध में हमारा विश्लेषण वस्तुगत, सठीक और सही है या नहीं इसे हम ठोस परिस्थति के ठोस विशलेषण के आधार पर ही तय कर सकते हैं और इस संबंध में अंतिम फैसला स्वाभाविक तौर पर वर्ग संघर्ष के भावी विकास से ही तय होगा । हमने इस विषय पर कुछ चर्चा की है और यदि जरूरी हुआ तो हम इस विषय के कुछ अन्य पहलुओं पर आगे और चर्चा करेेंगे । लेकिन सर्वहारा के अपने संघर्षों के बारे में प्रचलित भ्रमों और गलत धारणाओं को देखते हुए हमारे विशलेषण के बारे में एक दूसरे पहलू से चर्चा की जरूरत है । यह पहलू क्या है ? एक शब्द में कहें तो यह पहलू है इस बात का फैसला करना कि क्या श्रमिक आंदोलन की वर्तमान परिस्थिति में हमारा विश्लेषण सिद्धांत रूप से सही है । और क्या यह संभव भी है कि सैद्धंातिक तौर पर सर्वहारा अपने स्वतःर्स्फूत आंदोलनों के दौरान अपने अनुभवों का एक हद तक सार - संकलन कर सकें और उस सार संकलन के आधार पर खुद को संशोधनवाद- सुधारवाद से एक हद तक मुक्त कर सके ? क्या यह संभव है कि स्वतःस्फूर्त आंदोलनों के दौरान श्रमिकों में चेतना का विकास हो जो सिर्फ आर्थिक या ट्रेड यूनियन प्रकृति के संघर्ष और दाव पेंच न हों बल्कि एक हद तक राजनीतिक भी हों । यदि ऐसी चेतना का विकास होता भी है, तो क्या यह बुर्जुआ चेतना या विचारधारा की सीमाओं और दायरे के भीतर सीमित नहीं रहेगी ? या यह संभव है कि अलग अलग मामलों में झुकाव चाहे जो भी हो, सर्वहारा के स्वतःर्स्फूत आर्थिक संघर्ष आगे चल कर समूचे बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ सर्वहारा के एकताबद्ध स्वतंत्र वर्ग संघर्ष मे तब्दील हो जाए ? और यह कि सर्वहारा का स्वतःस्फूर्त आर्थिक संघर्ष ऐसे कुछ राजनीतिक तत्वों को जन्म देता है जो इस संघर्ष को वर्ग संघर्ष की ओर ले जाऐं और इससे भी सर्वहारा को वर्ग चेतना हासिल करने में मदद मिलती है ? एक दूसरा पहलू जिस पर चर्चा की जरूरत है वह है कि क्या सर्वहारा के स्वतःस्फूर्त आर्थिक संघर्ष बगैर किसी बाहरी शक्ति अर्थात पार्टी के हस्तक्षेप के बिना राजनीतिक संघर्ष में विकसित हो सकते हैं ? क्या अपने खुद के संघर्षों के दौरान सर्वहारा बगैर कम्यूनिस्टों द्वारा अपनी भूमिका के निर्वहन के वर्ग चेतना हासिल करने की दिशा में अग्रसर हो सकता है ? इसी से जुड़ा हुआ एक कहीं ज्यादा गहरा सवाल है - क्या सर्वहारा सिर्फ अपने संघर्षो के जरिए ट्रेड यूनियन के सबक या राजनीति से ज्यादा कुछ सीख सकता है ? या ऐसा है कि वर्ग चेतना हासिल करने के संदर्भ में सर्वहारा को सब कुछ बाहर से सिखाए जाने की जरूरत होती है ? इस वक्तव्य का वास्तविक महत्व क्या है कि कम्युनिस्ट या समाजवादी चेतना सर्वहारा तक बाहर से पहुँचाई जाती है ? सभी कम्युनिस्ट इस बात पर सहमत है कि समाजवादी विचारधारा श्रमिक वर्ग की विचारधारा है और कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की पार्टी होती है । लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण में सर्वहारा की भूमिका और उसके नेतृत्व के बारे में कम्युनिस्ट शिविर में भ्रम और स्पष्टता की कमी दिखाई देती है । भारत में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी समूहों की बड़ी तादाद (बहुसंख्या) के लिये इसका मतलब पार्टी में सर्वहारा विचारधारा के नेतृत्व तक सीमित है । इस दृष्टिकोण में यह स्वीकार किया जाता है कि यदि पार्टी में कम्युनिस्ट विचारधारा स्थापित है तो वह पार्टी कम्युनिस्ट है, और श्रमिकों की अलग और सुस्पष्ट भूमिका जरूरी नहीं है । और इस विचारधारा को स्वीकार और समाहित करने की संभाविता के नजरिए से सर्वहारा और अन्य वर्गों में कोई फर्क नहीं है - श्रमिक वर्ग की कोई अलग और स्पष्ट अहमियत नहीं है । यह तो उन कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों के बारे में कहा जा सकता है जो व्यवहार में सर्वहारा की वस्तुगत भूमिका का कोई महत्व नहीं देते है । लेकिन जो ग्रुप सर्वहारा की वस्तुगत भूमिका को स्वीकार भी करते हैं - क्या वे वाकई इसके वास्तविक महत्व को स्वीकार करते हैं ? क्या यह सच नहीं है कि वे भी यह मानते हैं कि सर्वहारा अपने बूते आगे नहीं बढ़ सकता है ? यह कि अपने प्रयासों से सर्वहारा सिर्फ आर्थिक संघर्ष चला सकता है, और यह कि कम्यूनिस्टों की मदद और नेतृत्व के बिना सर्वहारा अपने वर्ग के राजनीतिक संघर्ष खड़े नहीं कर सकता है ? क्या हम सर्वहारा को अनुसरण करने वाले के तौर पर नहीं देखते हैं ? क्या हम सर्वहारा की अपनी खुद की राजनीतिक चेतना विकसित करने में उसकी भूमिका को स्वीकार करते हैं या हम यह जानते हैं कि (क्रांतिकारी) चेतना का वाहक और उसे समाहित करने वाला सिर्फ क्रांतिकारी बुद्धिजीवी ही हो सकता है ? ये जटिल सवाल है और हम यह दावा नहीं करते कि हमारे पास इन सभी सवालों के सम्पूर्ण जवाब हैं । लेकिन हमें इन सवालों का सामना करना है और इस बारे में विचार करना है कि इन सवालों के बारे में मार्क्सवाद लेनिनवाद के महान शिक्षकों के क्या दृष्टिकोंण रहे हैं और यह चर्चा और भी ज्यादा अहम हो जाती है जब अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन की पराजय पश्चात सर्वहारा की लंबे समय की हताशा और निष्क्रियता के बाद, दुनिया के अलग अलग देशों में सर्वहारा एक बार फिर पूरी तरह से अपनी खुद की कोशिशों और पहल पर संघर्ष के मैदान में उतर रहे हैं और अपने संघर्ष और संगठन खड़े कर रहे हैं। क्योंकि हम इन संघर्षों की अहमियत को ठीक तरह से समझते हैं या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि मजदूरों के इन प्रयासों को हम किस नजरिए से देखते हैं । यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन घटनाओं में कम्युनिस्ट सही भूमिका तभी निभा सकते हैं जब वे सर्वहारा के इन प्रयासों के महत्व को समझें । हम चाहते हैं कि हमारी इस चर्चा से कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के बीच गहन आत्ममंथन को बढ़ावा मिले ताकि विभिन्न विचारों और मतों के टकराव से, हम अधिक परिष्कृत और विकसित सैद्धांतिक अवस्थिति तक पहुंच सकें जो हमें वर्ग संघर्ष के विकास के लक्ष्य के साथ खुद को सही तरीके से जोड़ने में हमारा मार्गदर्शन करे और हौसला दे ।
वर्ग संघर्ष क्या है ?
हम सभी को कम्युनिस्ट धोषणापत्र की वे प्रसिद्ध शुरूआती पंक्तियाँ याद हैं: "अभी तक मौजूद तमाम समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है" (कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र, मार्क्स और एंगेल्स) । हम सभी जानते हैं कि समाज में वर्ग विभेदों के जन्म के बाद से समाज में शोषक और शोषित वर्गों के बीच वर्ग संघर्ष अस्तित्व में रहा है । यह संघर्ष कभी सुषुप्तावस्था में रहता है और खुले तौर पर लड़ाई का रूप ले लेता है लेकिन यह बगैर रूके सतत जारी रहता है और यह वर्ग विहीन समाज में संक्रमण के साथ ही समाप्त हो सकता है । वर्ग संघर्ष के जरिए ही समाज आगे बढ़ता है और वर्ग संघर्ष ही समाज के विकास की प्रेरक शक्ति होता है । पूंजीवादी समाज में भी वर्ग संघर्ष स्वाभाविक रूप में जारी रहता है। लेकिन मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में एक और स्थान पर कहा है: "प्रत्येक वर्ग संघर्ष राजनीतिक संघर्ष होता है" (वही)। मार्क्स की रचनाओं में अन्य जगहों पर भी इसकी गूंज सुनाई देती है। लेनिन ने भी बाद में कहा है: "विश्व समाजवाद के प्रथम स्पष्ट वक्तव्य कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने उस सच को स्थापित किया था जो अब प्राथमिक सच बन चुका है - कि प्रत्येक वर्ग संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष होता है, कि मजदूर वर्ग आंदोलन केवल तभी अपनी भ्रूण अवस्था, अपने शैशव काल से विकसित होकर वर्ग आंदोलन बनता है जब यह राजनीतिक संघर्ष में रूपांतरित हो जाता है" (प्रोफेशन द फोई, लेनिन संकलित रचनाऐं खंड 4, पृष्ठ 287 अंग्रेजी से अनुवाद ) । हम इसकी व्याख्या कुछ इस तरह से कर सकते हैं कि जब तक सर्वहारा राजनीतिक संघर्ष की शुरूआत नहीं करता है, तब तक उसके संघर्षाें को वर्ग संघर्ष नहीं कहा जा सकता है । आर्थिक संघर्ष को कभी भी वर्ग संघर्ष की श्रैणी में नहीें रखा जा सकता है, सिर्फ राजनीतिक संघर्ष ही वर्ग संघर्ष होते हैं । लेनिन की रचनाओं में एक अन्य जगह पर कहा गया है "समाजवाद को उसके सिद्धांतकारों द्वारा सर्वहारा वर्ग संघर्ष में पुरःस्थापित किया जाता है जो पूंजीवादी संबंघों के आधार पर स्वतःस्फूर्त रुप में विकसित होता है" (नार्दन लीग के नाम एक पत्र लेनिन संकलित रचनाऐं खंड 6 पृष्ठ 161 अंग्रेजी से) । वर्ग संघर्ष में समाजवाद का प्रवेश कराने का प्रश्न अत्यधिक महत्वपूर्ण है और हम बाद में इसकी चर्चा करेंगे । अभी फिलहाल हम पाठकों का घ्यान उद्धरण के अंतिम भाग की ओर दिलाना चाहेंगे -"सर्वहारा संघर्ष पूंजीवादी संबंधों के आधार पर स्वतःस्फूर्त रुप में विकसित होता है । क्या इसका अर्थ यह है कि लेनिन यहाँ पर यह कहना चाहते हैं कि राजनीतिक संघर्ष स्वतःस्फूर्त रूप में पूंजीवादी संबंधो के आधार पर विकसित होता है ? हम इन शब्दों की व्याख्या कैसे करें ? यहाँ पर एंगेल्स के एक प्रसिद्ध उद्धरण पर भी चर्चा की जानी चाहिए । वह यह - वर्ग संघर्ष के तीन पक्ष होते हैं - आर्थिक संघर्ष, राजनीतिक संघर्ष, और वैचारिक संघर्ष । जर्मन मजदूर आंदोलन का जिक्र करते हुए, एंगेल्स ने कहा: "मजदूर आंदोलन के इतिहास में संघर्ष को इस तरह से सबसे पहली बार चलाया जा रहा है कि इसके तीनों पक्षों सैद्धांतिक, राजनीतिक और व्यवहारिक आर्थिक (पूंजीपतियों का विरोध) ने एक साथ मिलकर एक सुनियोजित अस्तित्व धारण कर लिया है । जर्मन आंदोलन की शक्ति और अपराजेयता इसी सघन आक्रमण में अंतर्निहित है ।" (एंगेल्स, जर्मनी में कृषक युद्ध, दूसरे संस्करण की भूमिका का परिशिष्ट-अंग्रेजी से) । यहाँ पर एंगेल्स ने आर्थिक संघर्ष को वर्ग संघर्ष का एक रूप या प्रकार माना है । यह कोई अलग थलग विचार नहीं है । मजदूर वर्ग के राजनीतिक कार्यों के बारे में प्रथम इंटरनेशनल के प्रस्ताव में कहा गया थाः " सर्वहारा के संघर्षों में आर्थिक आंदोलन और राजनीतिक कार्यक्रम अविभाज्य रूप से जुड़े हुए हैं ।" (तुरिन की अखबार अल प्रोलेतारि इटालियनों के संपादक मंण्डल को एंगेल्स का पत्र, नवंबर 29,1871, मार्क्स एंगेल्स चुनिंदा पत्रचार संकलन) इसी तरह के वक्तव्य लेनिन की रचनाओं में भी दिखाई देते हैं: पूंजीपतियों के खिलाफ हर हड़ताल का नतीजा होता है कि फौज और पुलिस मजदूरों पर टूट पड़ती है । हर आर्थिक संघर्ष लाजिमी तौर पर राजनैतिक संघर्ष बन जाता है तथा सामाजिक-जनवादियों को सर्वहारा के एक ही वर्ग संघर्ष में दोनों को जोड़ना होगा" (हमारा कार्यक्रम लेनिन संकलित रचनाऐं दस खंण्डो में खण्ड 9 प्रगति प्रकाशन) । तो फिर क्या इन शब्दों में कोई विरोधाभास है ? वास्तव में यदि हम थोड़ा गहराई में जाकर देखें तो हम पाऐंगे कि मार्क्सवाद के इन महान शिक्षकों की इन रचनाओं में कोई विरोधाभास नहीं है । अगर हम वर्ग संघर्ष को उसके विकास में नहीं देखेंगे, तो हम इस तरह के वर्ग संघर्ष को अलगाव में देखंेगे और उनके पारस्परिक द्वंदात्मक संबंध को नहीं देख पाऐंगे। तब हम मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के इन शब्दों का महत्व समझने में असफल रहेंगे ।
वर्ग संघर्ष के विकास का मार्ग
आइए, पहले लेनिन के पिछे दिए गए उद्धरण को दोहराएं: "समाजवाद को उसके सिद्धांतकारों द्वारा सर्वहारा वर्ग संघर्ष में पुरः स्थापित किया जाता है जो पूंजीवादी संबंघों के आधार पर स्वतः स्फूर्त रुप में विकसित होता है" । वास्तव में यह इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा की बुनियादी सच्चाई है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह स्वतःस्फूर्त वर्ग संघर्ष समाज में लगातार उभरता रहता है और यह मुख्यतया पूंजीपतियों के विरूद्ध आर्थिक संघर्ष के जरिए होता है । लेकिन यह संघर्ष पूरी तरह से वर्ग संघर्ष का रूप नहीं ले पाता है क्योंकि वर्ग संघर्ष अपने पूर्ण रूप में तभी विकसित हो सकता है जब समस्त सर्वहारा वर्ग समस्त पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध लड़ रहा होता है। इसी को स्पष्ट करते हुए लेनिन ने कहा था:"जब किसी एक फैक्टरी या उद्योग की एक शाखा के मजदूर अपने मालिक या मालिको के खिलाफ संघर्ष में उतरते हैं, तो क्या वह वर्ग संघर्ष होता है ? नहीं, वह उसका सिर्फ एक कमजोर भ्रुण होता है " (हमारा तात्कालिक कार्य, लेनिन संकलित रचनाएं, खण्ड-4, पृष्ठ 215) । यह संघर्ष वर्ग संघर्ष का कमजोर भ्रूण है क्योंकि यहाँ एक वर्ग दूसरे वर्ग से नहीं टकरा रहा होता है । दूसरी ओर यह "वर्ग संघर्ष" का कमजोर भू्रण है क्योंकि इस संघर्ष की उत्पत्ति भी श्रम और पंूजी के अंतर्विरोध से हुई है और इसके जरिए मजदूर पूंजी के विरूद्ध संघर्ष करते हैं । यह शब्द- "पूंजी के विरूद्ध संघर्ष" हमने नहीं गढ़ा है । यह शब्द एंगेल्स के एक वक्तव्य से लिया गया है । जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के गोथा कार्यक्रम की आलोचना करते हुए बेबेल को लिखे पत्र में ऐंगेल्स ने उक्त कार्यक्रम में ट्रेड यूनियनों के जिक्र की गैर मौजूदगी की आलोचना करते हुए लिखा:-"....क्योंकि यह सर्वहारा का असली वर्ग संगठन है जिसमें यह पूंजी के साथ अपना दिन प्रतिदिन का संघर्ष चलता है ............" (अगस्त बेबेल के नाम पत्र, एंगेल्स, मार्च 18-28, 1875, माकर््स ऐंगेल्स चुनिंदा पत्राचार प्रोग्रेस पब्ल्शिर्स, पृष्ठ 275)।
आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष के बीच के अंतर का वर्णन करते हुए मार्क्स ने बोलते के नाम लिखे अपने प्रसिद्ध पत्र में कहा " किसी फैक्टरी में या किसी व्यवसाय में भी, हड़तालों आदि के जरिए अलग अलग पूजींपतियों को और अधिक छोटा कार्य दिवस मानने के लिये मजबूर करना विशुद्ध आर्थिक आन्दोलन है । दूसरी ओर, आठ घंटे के कार्य दिवस आदि का कानून मनवाने का आन्दोलन राजनीतिक आन्दोलन है " (फ्रेडरिक बोलते के नाम माकर््स का पत्र- माकर््स एंगेल्स चुनिंदा पत्राचार 23 नवम्बर 1871द्ध । हम सब को मार्क्स के इस वक्तव्य के बारे में मालूम है । लेकिन यह उद्धरण जिस चर्चा सेे लिया गया है वह और भी अधिक महत्वपूर्ण है । आइए, पूरी चर्चा को देखें । उक्त पत्र में मार्क्स ने लिखा था: " मजदूर वर्ग के राजनीतिक आंदोलन का अंतिम लक्ष्य निश्चिय ही मजदूर वर्ग के लिये राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना है । स्वभावतया इसके लिये यह आवश्यक है कि मजदूर वर्ग के आर्थिक संघर्ष से उद्भुत उसका पहले से एक संगठन कुछ हद तक विकसित कर लिया गया हो ।"
"पर दूसरी ओर बात यह भी है कि जिस भी आंदोलन में मजदूर वर्ग एक वर्ग के रूप में शासक वर्गों के साथ मुकाबले पर आता है उन्हें बाहरी दबाव के जरिए मजबूर करने की चेष्टा करता है, वह राजनीतिक आन्दोलन है । उदाहरणार्थ, " किसी फैक्टरी में या किसी व्यवसाय में भी, हड़तालों आदि के जरिए अलग अलग पूजींपतियों को और अधिक छोटा कार्य दिवस मानने के लिये मजबूर करना विशुद्ध आर्थिक आन्दोलन है । दूसरी ओर, आठ घंटे के कार्य दिवस आदि का कानून मनवाने का आन्दोलन राजनीतिक आन्दोलन है " (फ्रेडरिक बोलते के नाम माकर््स का पत्र- माकर््स एंगेल्स चुनिंदा पत्राचार 23 नवम्बर 1871द्ध । इस तरह मजदूरों के अलग अलग आर्थिक आंदोलनों से हर जगह एक राजनीतिक आंदोलन विकसित हो जाता है, अर्थात एक वर्ग का आंदोलन विकसित हो जाता है, जिसका उद्देश्य अपने हितों को एक सामान्य रूप में उपलब्ध करना है, ऐसे रूप में उपलब्ध करना है जिसकी विशेषता यह है कि वह सामान्य रूप से एक सामाजिक प्रभुत्व की अधिकार प्राप्त करे । इन आंदोलनों के लिये यदि कुछ हद तक पहले से संगठन का होना पूर्वमान्य है तो इसी तरह यह भी सही है कि ये स्वयं इस संगठन के विकास के साधन होते है" (वही)। इस उद्धरण के कुछ पहलू विचारणीय हैं । पहला, मार्क्स यहाँ पर कहते हैं कि सर्वहारा आंदोलन का अंतिम लक्ष्य है राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना और इसके लिये सर्वहारा का एक संगठन जरूरी है । यह संगठन सर्वहारा के आर्थिक संघर्ष की प्रक्रिया में बनता है और राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के लिये इसका एक हद तक विकास होना जरूरी है । दूसरे, "दूसरी ओर" मार्क्स ने कहा है कि हरेक वह संघर्ष, जिसके जरिए सर्वहारा बाहर से शासक वर्ग पर दबाव डालने के लिये संघर्ष करता है, राजनीतिक संघर्ष होता है । इसका मतलब हुआ कि सर्वहारा के राजनीतिक संघर्ष का अंतिम लक्ष्य सत्ता हासिल करना है, लेकिन सर्वहारा के वे संघर्ष जो बेशक पूंजीवाद की सीमाओं के भीतर हों लेकिन जिनके जरिए वह शासक वर्ग का प्रतिरोध करने का प्रयास करता है वे संघर्ष भी राजनीतिक संघर्ष होते हैं । अर्थ यह कि यदि कोई संघर्ष पूंजीवादी व्यवस्था की सीमाओं के भीतर भी है और यदि यह संघर्ष समस्त सर्वहारा का संघर्ष बन जाता है तो यह सर्वहारा का राजनीतिक संर्घष ही कहा जाएगा । तीसरे, हरेक जगह पर अलग अलग आर्थिक संघर्षो से राजनीतिक संघर्ष विकसित होता है । कहने का आशय यह है कि हरके जगह पर सर्वहारा का संघर्ष आर्थिक संघर्ष के दौर से गुजर कर ही राजनीतिक संघर्ष के चरण में प्रवेश कर पाता है । इसके साथ ही मार्क्स का प्रसिद्ध उद्धरण याद करते हैं: "वर्ग संघर्ष की अनिवार्य परिणति सर्वहारा की तानाशाही में होती है ।" (जोसेफ वेयडेमेेयर के नाम मार्क्स, 5 मार्च 1852, माकर््स एंगेल्स चुनिंदा पत्राचार, प्रोग्रेस पब्लिशर्ज पृष्ठ 64).
यदि हम इन महान शिक्षकों की इन रचनाओं का समग्रता में आकलन करें, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि समाज में वर्ग अंतर्विरोधों के कारण वर्ग संघर्ष स्वतःस्फूर्त तौर पर विकसित होता है और यह मुख्यतया आर्थिक संघर्षों के रूप में होता है । चूंकि इन संघर्षों के जरिए यह समूचे वर्ग के चेतन संघर्ष में रूपांतरित नहीं होता है, इसलिए यह पूरी तरह से वर्ग संघर्ष नहीं होता है, यह सिर्फ अपने प्राथमिक रूप में ही होता है । समूचे वर्ग के संघर्ष में रूपांतरित हो कर यह वर्ग संघर्ष बन जाता है । और वर्ग संघर्ष के विकास की इस प्रक्रिया में यह अपने अंतिम लक्ष्य, सर्वहारा द्वारा सत्ता पर कब्जा करने और सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना की ओर आगे बढ़ता है । यदि हम वर्ग संघर्ष का आकलन उसके विकास की इस प्रक्रिया के संदर्भ में करें, तब हम वर्ग संघर्ष के विभिन्न रूपों को एक दूसरे से अलग करके नहीं देखेंगे तब हम उनके पारस्परिक अंतः संबंधों के रूप में और उनके रूपांतरण की प्रक्रिया के संदर्भ में देखेंगे । आर्थिक संघर्ष के चरण से राजनीतिक संघर्ष के चरण में संक्रमण यदि हम मजदूर वर्ग के संघर्ष के इतिहास को देखें तो हम पाएंगे कि हरेक देश में सर्वहारा आंदोलन शुरू में आर्थिक संघर्ष के चरण से हो कर गुजरा है और बाद में सं़क्रमण हो कर राजनीतिक संघर्ष के चरण में पहुंचा है । कम्यूनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने विकसित पूंजीवादी देशों में 18वीं सदी के अंतिम दशकों से लेकर 19वीं सदी के मघ्य तक के दौर में सर्वहारा संघर्ष के विकास की इस प्रक्रिया की चर्चा की है । 19वीं सदी के अंतिम दशक में लेनिन की रचनाओं में भी हम इस बात का वर्णन पाते हैं कि रूसी सर्वहारा किस प्रकार से धीरे धीरे अपने बाल्यकाल, आर्थिक संघर्षों के दौर से आगे बढ़ कर राजनीतिक संघर्ष के चरण में प्रवेश कर रहा था । बोल्ते को लिखे अपने पत्र में मार्क्स कहते है: "इस तरह मजदूरों के अलग अलग आन्दोलनों से हर जगह एक राजनीतिक आंदोलन विकसित हो जाता है, अर्थात एक वर्ग का आंदोलन विकसित हो जाता है जिसका उद्देश्य अपने हितों को एक सामान्य रूप में उपलब्ध कराना है" (बोलते के नाम मार्क्स का पत्र 23 नवम्बर 1871)। इसलिए सर्वहारा के आर्थिक संघर्षों के विकास के बिना उसका राजनीतिक संघर्ष विकसित नहीं हो सकता है और राजनीतिक संघर्ष का विकास आर्थिक संघर्ष के विकास के जरिए ही होता है । मार्क्स के इस वक्तव्य का क्या महत्व है कि सर्वहारा का राजनीतिक संघर्ष उसके आर्थिक संघर्ष के चरण से ही उभरता है ? हम जिस एक अर्थ के बारे में सोच सकते हैं वह यह है कि ऐतिहासिक तौर पर दुनिया भर में सर्वहारा का संघर्ष इसी प्रक्रिया से हो कर विकसित हुआ है । यह आम तौर पर सही है और हरेक देश में सर्वहारा संघर्ष के विकास के लिए भी यह सही है । यदि हम हरेक देश में सर्वहारा के विकास पर घ्यान दें, तो हम पाऐंगे कि हरेक जगह पर सर्वहारा संघर्ष आर्थिक संघर्ष के जरिए ही शुरू हुआ है और फिर सर्वहारा के राजनीतिक संघर्ष विकसित हुए । सवाल यह है कि क्या मार्क्स का यह वक्तव्य सर्वहारा संघर्ष के विकास के सिर्फ शुरूआती चरण के संदर्भ में ही सही है ? इससे पहले हमने लेनिन का जो उद्धरण दिया है उसमें हमने देखा कि आर्थिक संघर्ष सर्वहारा संघर्ष का बाल्यकाल होते हैं और यह वर्ग संघर्ष केवल तभी बनता है जब यह राजनीतिक संघर्ष में रूपांतरित हो जाता है । यदि हम इस वक्तव्य का आंकलन करें कि आर्थिक संघर्ष सर्वहारा आंदोलन का बाल्यकाल होता है और हम इसे सर्वहारा संघर्ष का शुरूआती चरण माने तब राजनीतिक संघर्ष के चरण में आर्थिक संघर्ष नहीं होने चाहिये। क्योंकि बाल्यावस्था से आगे बढ़ने के बाद आप बाल्यावस्था में वापस नहीं लौट सकते हैं । लेकिन हम जानतें हैं और देखते भी है कि किसी भी पूंजीवादी देश में आर्थिक संघर्ष हर समय चलते रहते हैं । लेनिन के शब्दों में:"ट्रेड यूनियन संघर्ष समूचे मजदूर आंदोलन का एक सत्त रूप है जिसकी पूंजीवाद के तहत हमेशा जरूरत होती है और जो हर समय अनिवार्य है" (लेनिन, एस॰ आई॰ गुसेव के नाम, लेनिन संकलित रचनाऐं, खंण्ड 34, पृष्ठ 355-359 ) और हमने इससे पहले एंगेल्स की रचनाओं में भी देखा है कि आर्थिक संघर्ष सर्वहारा के वर्ग संघर्ष के तीन रूपों में से एक रूप है । उस समय, जब जर्मन सर्वहारा के संघर्ष के संदर्भ में एंगेल्स ने आर्थिक संघर्ष को वर्ग संघर्ष के तीन रूपों में से एक रूप बताया था, तब ऐतहासिक नजरिए से सर्वहारा का संघर्ष पहले ही राजनीतिक संघर्ष के चरण में प्रवेश कर चुका था, और इतना ही नहीं, उसकी पार्टी भी पहले ही बन चुकी थी । हम पहले ही यह देख चुके हैं कि उस समय भी एंगेल्स ने ट्रेड यूनियनों के माघ्यम से पूंजी के विरूद्ध युद्ध की बात कही थी । इसका अर्थ यह है कि यह बात, कि सर्वहारा वर्ग संघर्ष के प्राथमिक रूप में संघर्ष को आर्थिक संघर्ष के तौर पर चलाता है, किसी देश में वर्ग संघर्ष के विकास के शुरूआती चरण के लिये ही सच नहीं है । अर्थात आर्थिक संघर्ष से राजनीतिक संघर्ष में संक्रमण की संभावना हमेशा ही रहती है । जब तक समाज में पूंजी द्वारा शोषण मौजूद है, आर्थिक संघर्ष स्वतःस्फूर्त तौर पर होता रहता है । इस आर्थिक संघर्ष का विकास सर्वहारा को लगातार वस्तुगत तौर पर एक समूचे वर्ग के समूचे (पूंजीपति) वर्ग के विरूद्ध राजनीतिक संघर्ष की दिशा में धकेलता रहता है और सर्वहारा के अधिकाधिक तबकों को राजनीतिक संघर्ष की धारा में खंीचता रहता है ।
लेकिन मान लीजिये, किसी एक देश में सर्वहारा संघर्ष राजनीतिक संघर्ष के चरण में पहुंच जाता है, सर्वहारा की पार्टी बनाई जाती है, लेकिन उसके बाद संघर्ष कुचल दिया जाता है, बिखराव है, पार्टी नष्ट हो जाती है और सर्वहारा राजनीतिक संघर्ष के बिना पार्टी विहीन स्थिति में पहुंच जाता है । तब, क्या इस तर्क का यह मतलब है कि चूंकि सर्वहारा का आंदोलन एक बार आर्थिक संघर्ष के दौर से निकल कर राजनीतिक संघर्ष के चरण में पहुंच गया था, इसलिये अब सर्वहारा का राजनीतिक संघर्ष दोबारा सीधे ही खड़ा हो सकता है ? दूसरी ओर, क्या यह सच नहीं है कि राजनीतिक संघर्ष के बिना एक लंबे दौर के कारण अब उस देश में सर्वहारा संघर्ष का विकास एक बार फिर आर्थिक संघर्ष के चरण से ही होगा, पहले आर्थिक संघर्ष के संगठन बनेंगे और फिर उस रास्ते से हो कर राजनीतिक संगठन बनाने की दिशा में आगे बढ़ा जाएगा? क्या सिर्फ इस वजह से कि ऐतहासिक रूप से एक बार वर्ग संघर्ष आर्थिक संघर्ष के चरण से गुजर कर राजनीतिक संघर्ष के चरण में प्रवेश कर चुका था, क्या यह सच है कि ऊपर उल्लिखित स्थिति में अब राजनीतिक संघर्ष आर्थिक संघर्ष के चरण से गुजरे बिना खड़ा हो सकता है ? क्या ऐसे समय पर वर्ग संघर्ष के विकास का इसके अलावा कोई दूसरा वैकल्पिक रास्ता हो सकता है ? एक बार फिर से वर्ग संघर्ष को आगे विकसित होने के लिये आर्थिक चरण से हो कर ही गुजरना होगा । बेशक, इसी बीच समाज काफी आगे बढ़ चुका है । पहले के काल में, समाज में मार्क्सवाद का उद्भव नहीं हुआ था लेकिन उसके बाद इसने सर्वहारा के बीच गहरी जड़ें जमा लीं और सर्वहारा संघर्ष सर्वहारा द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के चरण तक जा पहुँचा । इस गौरवशाली इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता है । इसलिये बाद के समय में (अर्थात वर्तमान समय पर) सर्वहारा संघर्ष को बेशक आर्थिक चरण से ही शुरू करना होगा, लेकिन यह निश्चित तौर पर पिछले चरण को दोहराएगा नहीं । यह पहले से कही ज्यादा विकसित अवस्था से आगे बढ़ेगा । यही तार्किक है। आर्थिक संघर्ष से राजनीतिक संघर्ष में संक्रमण में पार्टी की भूमिका: इतिहास या सामाजिक प्रगति की भौतिकवादी व्याख्या से (जो कि मार्क्सवाद का मुख्य महत्वपूर्ण योगदान है ), हम जानते हैं कि समाज में हरेक क्षण सर्वहारा के जो स्वतःर्स्फूतः संघर्ष खड़े होते रहते हैं (समाज में सर्वहारा की स्थिति के कारण, वर्ग शत्रुता के कारण), वे वस्तुगत तौर पर सर्वहारा द्वारा सत्ता हांिसल करने के अंतिम लक्ष्य की ओर आगे विकसित होते रहते हैं । कम्युनिस्टों का कर्त्तव्य या भूमिका किसी अन्य संघर्ष को खड़ा करने की नहीं है, बल्कि सर्वहारा के ऊपर उल्लिखित संघर्ष के विकास में मदद करना और दिशा देना है ताकि वह शीघ्रातिशीघ्र सभी बाधाओं को पार कर अपने लक्ष्य तक पहुंच सके । 5 जनवरी 1879 को मार्क्स ने शिकागो ट्रिब्यून पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में कहा था: "श्रमिक वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से आंदोलन करते हैं और उन्हें यह मालूम नहीं होता है कि आंदोलन का नतीजा क्या निकलेगा। समाजवादी किसी आंदोलन का आविष्कार नहीं करते हैं, वे मजदूर को सिर्फ इतना बताते हैं कि आंदोलन का चरित्र क्या होगा और उसके क्या नतीजे होगें" ;ीजजचरूध्ध्ूूूण्उंतगपेजेण्वतहध्ंतबीपअमध्उंतगध्इपवध्उमकपंध्उंतगध्79.01.05ण्ीजउद्ध। लेनिन ने भी कहा था ," इसने (मार्क्सवाद ( ने-वर्तमान लेखक) हमें सिखाया है कि हम गहरे जड़ जमाए रीति-रिवाजों , राजनीतिक षड़यंत्रों, गूढ़ कानूनों और जटिल सिद्धांतो के परदे में ढके वर्ग संघर्ष को कैसे पहचाने, वह संघर्ष जो विविध प्रकार के संपत्तिशाली वर्गांें और संपत्तिविहीन जनता के बीच चलता है जिसके शीर्ष पर सर्वहारा है। इसने क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी के असली कार्यभार को स्पष्ट कर दिया है। समाज की पुनर्रचना की योजनाएं न बनाएं, पूंजीपतियों और उनके चाटुकारों को मजदूरों की दशा सुधारने के बारे में उपदेश न दें, साजिशें न करें, बल्कि सर्वहारा का वर्ग संघर्ष संगठित करें और उस संघर्ष का नेतृत्व करें जिसका अंतिम लक्ष्य है सर्वहारा द्वारा राजनीतिक सत्ता का निर्माण करना" (हमारा कार्यक्रम लेनिन,ं संकलित रचनाऐं खंड 4, पृष्ठ 210-211 )। वर्ग संघर्ष की उत्पत्ति कम्युनिस्टों ने नहीं की है । यह वर्ग विभाजित समाज के वर्ग अंतर्विरोधों से उपजा है । कम्युनिस्टों की भूमिका है स्वतःस्फूर्त तरीके से विकसित हो रहे वर्ग संघर्ष को संगठित करना, उसका विकास करना, उसे समूचे वर्ग संघर्ष की ओर बढ़ाने का प्रयास करना, उसे समाजवाद की दिशा में ले जाना । स्तालिन ने इससे भी ज्यादा साफ शब्दों में लेनिन के शब्दों की व्याख्या इस तरह से की है "लेनिन कहते हैं कि सर्वहारा देर सवेर न केवल बुर्जुआ वर्ग से अलग हो जाएगा बल्कि सामाजिक क्रांति संपन्न करेगा, अर्थात बुर्जुआ वर्ग का तख्ता पलट करेगा। सामाजिक जनवाद का कार्यभार है -वह जोड़ते हैं - कि इस काम को यथाशीध्र पूरा करें और सचेत रूप से करें ।" (पार्टी के भीतर मतभेदों के बारे में संक्षेप में, स्तालिन संकलित रचनाऐं खंड 1, पृष्ठ 112-113,)। इन रचनाओं से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि समाज में वर्ग अंतर्विरोधों के कारण स्वतःस्फूर्त तरीके से जो सर्वहारा संघर्ष खड़ा होता है उसके विकास की अपरिहार्य दिशा होती है बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फैंकना । बाद में हम विस्तार से देखेंगे कि पूंजीपतियों के वैचारिक प्रतिनिधि वर्ग संघर्ष के विकास की इस दिशा को बदल देते हैं । वे सर्वहारा के संघर्ष को इस समाज की सीमाओं की भीतर सीमित रखने की, सर्वहारा की परिस्थितियों में कुछ सुधार तक सीमित रखने की कोशिश करते हैं । यदि किसी देश में कम्युनिस्ट पार्टी होती है तो यह स्वाभाविक होता है कि सर्वहारा के प्रत्येक संघर्ष का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी करें और बुर्जुआ वर्ग के वैचारिक प्रतिनिधियों के षड़यंत्र को विफल करते हुए सर्वहारा संघर्ष को समाजवाद के लक्ष्य की ओर ले जाए । क्योकिं एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की पार्टी होती है और उसका सर्वहारा में न केवल आधार होता है बल्कि सर्वहारा का अगुवा दस्ता उस पार्टी के भीतर ही संगठित होता है । लेकिन यदि कम्युनिस्ट पार्टी न हो, यदि कम्यूनिस्ट सर्वहारा संघर्ष के शीर्ष पर न हों, तो क्या सर्वहारा अपने प्रयास और अपनी क्षमता से राजनीतिक संघर्ष खड़ा कर सकता है ? क्या सर्वहारा इतना ज्यादा कमजोर है कि कम्युनिस्टों की भूमिका के बिना यह बुर्जुआ वर्ग के विरूद्ध अपना राजनीतिक संघर्ष खड़ा करने में असमर्थ हैं ? सर्वहारा संघर्ष के जिस वस्तुगत रास्ते की हमने अभी चर्चा की है वह कुछ और ही कहता है । संघर्ष के इस वस्तुगत रास्ते से यह स्वाभाविक है कि सर्वहारा संघर्ष राजनीतिक संघर्ष का रूप ले लेता है ।मार्क्स की रचनाओं से हम पहले ही देख चुके हैं:"इस तरह मजदूरों के अलग अलग आर्थिक आंदोलनों से हर जगह एक राजनीतिक आंदोलन विकसित हो जाता है, अर्थात एक वर्ग का आंदोलन विकसित हो जाता है, जिसका उद्देश्य अपने हितों को एक सामान्य रूप में उपलब्ध करना है, ऐसे रूप में उपलब्ध करना है जिसकी विशेषता यह है कि वह सामान्य रूप से एक सामाजिक प्रभुत्व की अधिकार प्राप्त करे" । यदि हम सर्वहारा के इतिहास को देखें, तो हम पाऐंगे कि अपने संघर्षों के दौरान सर्वहारा ने, स्वयं अपने प्रयासों से, अर्थात क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों की मदद के बिना (बुर्जुआ मूल के वे बुद्धिजीवी जो सर्वहारा की मुक्ति के लिये कार्य कर रहे होते है), राजनीतिक संघर्ष खड़े किए हैं, अपनी वर्गीय मांगो को आगे बढ़ाया है और अपने संघर्षो के जरिए पूंजीवादी समाज से समाजवादी समाज के निर्माण की दिशा के बारे में समाज के सामने कुछ महत्वपूर्ण सच्चाईयाँ भी पेश की हैं । इंग्लैंड में 1830 और 1840 के दशक में, चार्टिस्ट आंदोलन में, हमने देखा कि मजदूर वर्ग से बाहर के किसी नेतृत्व के बिना सर्वहारा ने चार्टिस्ट अंादोलन जैसा राजनीतिक संघर्ष खड़ा कर दिया था । उसकी मांगो में निर्वाचन व्यवस्था में अपने प्रतिनिघि भेजने के सर्वहारा के अधिकार की मांग शामिल थी । फरवरी 1848 की बुर्जुआ जनवादी क्रांति के पीछे की मुख्य शक्ति सर्वहारा था । इस क्रांति में सर्वहारा ने बुर्जुआ वर्ग को क्रांति करने के लिए विवश किया क्योंकि वे ऐसा सोचते थे कि इस क्रांति के जरिए उनकी अपनी मांगे भी पूरी हो सकेंगी । लेकिन जब बुुर्जुआ वर्ग द्वारा सत्ता पर कब्जा करने के बाद सर्वहारा ने पाया कि क्रांति के परिणामस्वरूप बने संविधान द्वारा सिर्फ बुर्जुआ वर्ग के हितों की ही रक्षा हो रही है, तब जून 1848 में पेरिस के मजदूरों ने सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश की । इस उभार को बुर्जुआ वर्ग द्वारा खून में डुबो दिया गया । जून 1848 में पेरिस के सर्वहारा का यह विद्रोह सर्वहारा की स्वतंत्र शक्ति की पहली अभिव्यक्ति थी । 1848 की बुर्जुआ क्रांतियों में सर्वहारा की भूमिका ने बुर्जुआ वगर््ा को इतना ज्यादा भयभीत कर दिया कि उन्होंने सामंती भूस्वामियों से सत्ता छीनने के क्रांतिकारी रास्ते को छोड़ दिया, और उसकी बजाय सामंती शक्तियों से समझौता करने की राह पकड़नी शुरू कर दी । 1848 के बाद पेरिस के सर्वहारा ने 1871 में सत्ता पर कब्जा किया और पेरिस कम्यून बनाया जो पहला सर्वहारा राज्य था । पेरिस कम्यून के अनुभवों के आधार पर मार्क्स और एंगेल्स ने सर्वहारा द्वारा सत्ता पर कब्जा किए जाने के बाद के दौर में सर्वहारा की तानाशाही की प्रकृति का सर्वप्रथम निरूपण किया । यह याद रखा जाना चाहिये कि इस पेरिस कम्यून की स्थापना सर्वहारा ने स्वयं अपने आप की थी । सर्वहारा के ये स्वतंत्र प्रयास और संघर्ष उसकी असीम क्षमताओं के सबूत हैं । कुछ लोग कह सकते हैं कि भारत में सघर्षों की जिस नई धारा का हमने उल्लेख किया है वे सब आर्थिक चरण के संघर्ष हैं और इसलिये इस चर्चा में सर्वहारा के इन एेितहासिक संघर्षों की चर्चा संदर्भ से परे है । भारतीय सर्वहारा के मौजूदा संघर्षों की किसी भी रुप में सर्वहारा के इन ऐतिहासिक संघर्षों से तुलना नहीं की जा सकती है । इस बात से असहमति का कोई सवाल ही नहीं है । हमारे लिये सर्वहारा के इन संघर्षों का उदाहरण आज के संदर्भ में महत्वपूर्ण है क्योंकि इन संघर्षों ने यह सिद्ध किया है कि सर्वहारा स्वतंत्र रूप से, किसी पार्टी के नेतृत्व के बिना, यहाँ तक कि कम्यूनिस्ट पार्टी की मौजूदगी के बिना भी राजनीतिक संघर्ष खड़े करने में सक्षम हैं । सर्वहारा की यह शक्ति या क्षमता समाज में उसकी वर्गीय स्थिति में अंतर्निहित है, पूंजीपति वर्ग के साथ उसकी वर्गीय शत्रुता में अंतर्निहित है जो उसे हर क्षण पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध खड़े होने के लिए उसका खात्मा करने के लिये संघर्ष करने को मजबूर करती है ।
आर्थिक संघर्ष से राजनीतिक संघर्ष के चरण में संक्रमण की संभावना क्यों बनती है ? हालांकि हरेक पूंजीपति अपने उद्योग या फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों का शोषण करता है, हरेक पूंजीपति समस्त पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से के तौर पर यह शोषण करता है क्योंकि वह पूरे देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा होता है और कुल मिला कर फैक्टरी के स्तर पर उन्हीं नीतियों को लागू कर रहा होता है । इसलिये अलग अलग पूंजीपति द्वारा फैक्टरी स्तर पर किया जा रहा शोषण समूचे पंूजीपति वर्ग द्वारा मजदूर वर्ग पर किए जा रहे हमले का हिस्सा होता है । अलग अलग पूंजीपति द्वारा किए जा रहे इन हमलों के जरिए ही सर्वहारा वर्ग के विरूद्ध पूंजीपति वर्ग का वर्ग युद्ध चलता रहता है । बुर्जुआ सरकार समूचे पूंजीपति वर्ग द्वारा किए जा रहे हमलों के समर्थन में खड़ी होती है । वह समूचे पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है और उसके हितों की रक्षा करती है । जब सर्वहारा संघर्ष का विस्तार समूचे देश में होना शुरू हो जाता है, तब देश के अलग अलग हिस्सों के मजदूर एहसास करने लगते हैं कि उनके हित एक समान हैं, कि अलग अलग फैक्टरियों में वे पूंजीपति वर्ग की एक समान नीतियों के खिलाफ लड़ रहे हैं । इसके परिणामस्वरूप मजदूरों के अलग-थलग संघर्षों से समूचे पूंजीपति वर्ग के खिलाफ समूचे सर्वहारा का संघर्ष विकसित होना शुरू हो जाता है । सर्वहारा का बुर्जुआ हितों की रक्षा करने वाली सरकार के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष विकसित होता है । आर्थिक संघर्ष से राजनीतिक संघर्ष में संक्रमण की यह प्रवृत्ति मौजूद है बेशक कम्यूनिस्टों की उपस्थिति कैसी भी हो । कम्यूनिस्टों का काम है कि संशोधनवादी सुधारवादी या अन्य बुर्जुआ विचारधाराओं के प्रभाव को हरा कर वर्ग संघर्ष की इस प्रवृति का रूख मौजूदा व्यवस्था को पलटने और एक नई समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की दिशा में मोडें़ । एक शब्द में कहें तो, वर्ग संघर्ष की वस्तुगत गति को तेज करने में मदद करना । राजनीतिक चेतना जो आर्थिक संघर्ष से उभरती है लेकिन वह संघर्ष जो अभी आर्थिक चरण तक सीमित है-क्या यह संघर्ष राजनीतिक चेतना को जन्म दे सकता है ? मार्क्स की रचनाओं से लिए गए उद्धरण में हमने देखा है: "इस तरह, मजदूरों के अलग अलग आर्थिक आंदोलनों से हर जगह एक राजनीतिक आंदोलन विकसित हो जाता है" । लेनिन की रचना में भी हमने देखा है"हर आर्थिक संघर्ष लाजिमी तौर पर राजनीतिक संघर्ष बन जाता है" (हमारा कार्यक्रम.......)। यदि हम लेनिन के इन शब्दों का आकलन उस रचना की अन्य बातों के संदर्भ में करें, तो हम पाते हैं कि "राजनीतिक संघर्ष बन जाता है" से लेनिन का आशय था कि मजदूर कैसे आर्थिक संघर्ष के जरिए राजनीतिक शिक्षा हासिल करते हैं ।
चूंकि आर्थिक संघर्ष में राजनीतिक संघर्ष तक संक्रमण की वस्तुगत संभावना होती है, इसलिये आर्थिक संघर्ष में राजनीतिक चेतना की उत्पत्ति हो सकती है । आर्थिक संघर्षों में भी मजदूरों का मुकाबला सरकार की विभिन्न आर्थिक नीतियों से होता है । यह मजदूरों को शिक्षा देती है कि यह राज्य और सरकार वास्तव में पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है। सरकारी नीतियों के जरिए मजदूर समूचे पूंजीपति वर्ग से टकराना शुरू कर देते हैं । वे विभिन्न बुर्जुआ पार्टियों और संगठनों के बारे में, और इन संगठनों के खिलाफ समूचे सर्वहारा को एकजुट करने की जरूरत के बारे में चेतनाशील होना शुरू कर देते हैं, खास कर सर्वहारा के अगुवा तबकों में यह चेतना आती है । इस बारे में कोई सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है कि किस आर्थिक संघर्ष से किस स्तर की राजनीतिक चेतना की उत्पत्ति होगी । यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस समय सर्वहारा आंदोलन किस चरण में हैं । और कम्यूनिस्टों की मौजूदगी के बिना भी मजदूर अपने अनुभवों से सीख सकते हैं और वे सीखते भी हैं । चूंकि कम्यूनिस्टों को सैद्धांतिक तौर पर समाज विकास की दिशा और वर्ग संघर्ष की दिशा का एहसास होता है इसलिये वे साधारण मजदूर की तुलना में कहीं ज्यादा स्पष्टता और शीध्रता के साथ इन अनुभवों से सीख ले सकने में समर्थ होते हैं । और वे इन सबको ज्यादा अच्छे तरीके से समग्रता में मजदूरों तक पहंुचा सकते हैं । इस संदर्भ में यह घ्यान देने योग्य है कि निम्न बुर्जुआ के वैचारिक प्रतिनिधियों के संबंध में मार्क्स ने लिखा है कि निम्न पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करने वाले विचारक "थ्यौरी में लगातार उन्हीं समस्याओं और समाधानों की ओर जा रहे होते हैं जहाँ भौतिक हित और सामाजिक परिस्थितियाँ, व्यवहार में, निम्न पूंजीपति को पहूँचा देती हैं । सामान्य तौर पर किसी एक वर्ग के राजनीतिक और साहित्यिक प्रतिनिधियों और उनके वर्ग के बीच यही संबध होता है "(एटिंथ ब्रूमेर ऑफ लूई बोनापार्ट, मार्क्स एंगेल्स चूनींदा रचनाऐं (तीन खण्ंड में), खंड 1, पृष्ठ 424.) । यहाँ यह याद रखा जाना चाहिये कि इस उद्धरण में मार्क्स ने न केवल एक समस्या को उठाया है बल्कि उस समस्या के हल की ओर इशारा भी किया है । इसलिये इस उद्धरण से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जिस दिशा में या हल की ओर सर्वहारा के संघर्ष अचेतन रूप से सर्वहारा को ले जा रहे होते हैं, वही वह हल है जिसे सर्वहारा के सैद्धांितक प्रतिनिधि के तौर पर कम्युनिस्टों को ढूंढ़ निकालने और सर्वहारा के बीच प्रसारित करने की जरूरत है । अमरीकी मजदूर आंदोलन के सबक सर्वहारा अपने संघर्षों के जरिए और समाज में घट रही घटनाओं की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के जरिए और अपनी हार के जरिए आम तौर पर बहुत कुछ सीखता है । एंगेल्स ने 1880 के दशक में अमरीकी मजदूर आंदोलन के बारे में एक पत्र में इसके सबकों और सर्वहारा के आंदोलन के संबंध में लिखा था । इस पत्र में उन्होंने लिखा: "जनता को विकास के लिये समय और अवसर मिलने चाहिए और यह अवसर उन्हें केवल तभी मिल सकता है जब उनका खुद का आंदोलन हो - इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका क्या रुप है बशर्ते कि यह आंदोलन उनका अपना हो-जिसमें वे गलतियों से सीखते हुए आगे बढ़ते हैं" (एंगेल्स, फेडरिख एडाल्फ, सोर्ज को, 29 नवंबर, 1886, मार्क्स एंगेल्स चुनींदा पत्राचार, प्रोग्रेस पब्लिशर्ज, पृष्ठ 374 तिरछे अक्षर मूल पत्र में) । इस उद्धरण के महत्व को समझने के लिये, हमें 1886 के अमरीकी मजदूरों के आंदोलन के बारे में एंगेल्स के विश्लेषण और विचारों को जानने की जरूरत है । अमरीकी मजदूर वर्ग के इस संघर्ष के संबंध में उनका एक बहुत अच्छा विश्लेषण दिखाई देता है उनकी पुस्तक "इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की स्थिति" के 1892 के अमरीकी संस्करण की भूमिका में । यह भूमिका "अमरीका में मजदूर वर्ग आंदोलन" के नाम से प्रसिद्ध है । अमरीका में सर्वहारा आंदोलन की शुरूआत फरवरी 1886 में हुई थी। लेकिन बहुत जल्द ही यह समूचे अमरीका में फैल गया । धीरे धीरे यह आर्थिक संघर्ष की सीमाओं को लांघ कर राजनीतिक संघर्ष में विकसित होना शुरू हो गया । शिकागो में मई 1886 की प्रसिद्ध घटना के बाद, ऐंगेल्स ने 23 मई 1886 को लॉरा लफार्ग को एक अन्य पत्र लिखा: "यदि मौजूदा अमरीकी आंदोलन-जोकि खालिस जर्मन नहीं है और अभी ट्रेड यूनियन के दौर मे हैं - को 8 घंटे के सवाल पर जीत मिल गई होती, तो ट्रेड यूनियनवाद एक निश्चित और अंतिम जड़सूत्र बन जाता। जबकि एक मिला-जुला नतीजा उनके सामने यह प्रदर्शित करता कि "ज्यादा वेतन और कम काम के घंटों" से आगे जाने की जरुरत है (मार्क्स एंगेल्स, अमरीका के बारे में, पृष्ठ 306 अंग्रेजी से )। यहाँ यह उल्लेख करने की जरूरत है कि "विशिष्ट रूप से जर्मन नहीं" से एंगेल्स का इशारा सोशलिस्ट लेबर पार्टी ऑफ अमेरिका की ओर था जिसमें प्रवासी जर्मन समाजवादियों का बोल बाला था और जो सिर्फ नाम के लिये ही पार्टी थी और उसका मजदूर वर्ग से कुछ भी लेना देना नहीं था । अर्थात, कम से कम मई माह तक एंगेल्स इस संघर्ष को मुख्यतया ट्रेड यूनियन संघर्ष ही मानते थे । इतना ही नहीं, इस संघर्ष का नेतृत्व मुख्यतया नाईट्स ऑफ लेबर के हाथ में था जिसके बारे में एंगेल्स का कहना था:-"............. भ्रमित सिद्धान्त और हास्यास्पद संगठन ......." "नाइटस आफ लेबर का सबसे खराब पक्ष है उनकी राजनीतिक निष्पक्षता जिसका नतीजा हुआ है पाउडरली आदि की धोखेबाजी" ( एंेगेल्स, सोर्ज को, 29 नवंबर 1886, मार्क्स-एंगेल्स चुनींदा पत्राचार प्रोग्रेस पब्लिशर्ज, पृष्ठ 373-374 )। नाईट्स ऑफ लेबर ने मजदूरों को 1886 की ऐतहासिक मई दिवस हड़ताल में भाग लेने तक से मना किया था । यह उस संगठन का घोषित लक्ष्य और गतिविधि थी । इस सबके बावजूद, एंगेल्स ने इस संगठन को अहमियत दी और उनकी राय थी कि मजदूर इस संघर्ष से खुद सबक निकालेंगे और अपने वर्ग के लक्ष्य को ढूंढ लेंगे और हासिल करने के लिये कार्य करेंगे । एंगेल्स के शब्दों में अमरीकी मजदूरों का सतत विकास और क्रांति की राह पर उनकी प्रगति " प्लास्टिक के ऐसे खदबदा रहे उत्तेजित पदार्थ की तरह थी जो अपनी अंतर्निहित प्रकृति के अनुरूप आकार और रुप की तलाश कर रहा हो" (एंगेल्स, अमरीका में मजदूर आंदोलन, मार्क्स व एंगेल्स, संयुक्त राज्य के बारे में, पृष्ठ 287)। इसी कारण 28 दिसम्बर 1886 को एंगेल्स ने फ्लोरेंस केली को लिखा: "बड़ी बात यह है कि मजदूर वर्ग एक वर्ग के रूप में आगे बढ़े ; एक बार ऐसा हो जाए, तो वे जल्द ही सही दिशा ढूंढ लेंगे, और वे सब जो विरोध करते हैं, एच जी या पाऊडरली, अपने छोटे छोटे समूहों के साथ पीछे छूट जाऐंगे । इसलिए मैं यह भी मानता हूँ कि नाइट्स ऑफ लेबर आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिसका बाहर खड़े होकर तिरस्कार करने की बजाय उसका भीतर से क्रांतिकरण किया जाना चाहिए "(फ्लोरेंस केली-विशेन्वेत्सकी के नाम एंगेल्स का पत्र, 28 दिसम्बर, 1886, मार्क्स एंगेल्स चुनींदा पत्र, प्रोग्रेस पब्लिशर्ज, पृष्ठ 376)। एंगेल्स की इन रचनाओं से जो मुख्य सच्चाई उभर कर सामने आती है वह यह है कि मजदूर वर्ग "अपने आंदोलन" से निश्चित तौर पर सीखता है यदि वह एक वर्ग के रूप में कार्य करता है और आगे बढ़ता है,और यह बगैर किसी सचेत कम्युनिस्ट नेतृत्व के भी सीखता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि यह अपनी जन्मजात वर्गीय इंद्रि और पूंजी के विरूद्ध संघर्ष के अपने अनुभव के आधार पर ही राजनीतिक चेतना हासिल करने की दिशा में, राजनीतिक संघर्ष की दिशा में और यहाँ तक कि अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बनाने की दिशा में भी आगे बढ़ सकता है । इसी रचना में एंगेल्य ने लिखा है " देश के एक बहुत बडे़ हिस्से में मजदूरों की इतनी बड़ी तादाद के स्वतःस्फूर्त और सहज आंदोलनों, अपनी दयनीय सामाजिक अवस्था के प्रति उनके एक समान असंतोष के एक साथ हो रहे विस्फोट, जो हर जगह एक समान कारण से हो रहे थे, ने उन्हें यह चेतना दी कि वे अमरीकी समाज के एक नए और भिन्न वर्ग का हिस्सा है, एक ऐसा वर्ग जो व्यवहारिक तौर पर, वंशानुगत दिहाड़ी मजदूरों, सर्वहारा का वर्ग है। और फिर सच्ची अमरीकी वृत्ति के अनुरुप इस चेतना ने उन्हें तत्काल उनकी मुक्ति की दिशा में अगला कदम उठाने के लिए प्रेरित किया "मजदूरों की राजनीतिक पार्टी का गठन... "(अमरीका में मजदूर अंादोलन, मार्क्स व एंगेल्स संयुक्त राज्य के बारे में , पृष्ठ 284.) लेनिन और "क्यों करें ?" सर्वहारा के प्रभुत्व में विश्वास रखने वालों सहित अनेक कम्युनिस्ट खुद भी इस बात को मानते हैं और दूसरों को भी सहमत कराने की कोशिश करते हैं कि कम्युनिस्टों की मदद के बिना मजदूर ट्रेड यूनियन संघर्ष से ज्यादा और कुछ नहीं कर सकते हैं । इस विश्वास का आधार क्या है ? या दूसरे शब्दों में कहा जाऐ तो, इस विश्वास के लिये उन्हें कहाँ से शक्ति मिलती है ? इससे पूर्व की चर्चा में हमने देखा है कि मार्क्स और एंगेल्स की सीख और सर्वहारा के संघर्षों के विगत अनुभव हमें इससे नितांत भिन्न सबक सिखाते हैं । उनका सबसे सशक्त और शायद एकमात्र तर्क लेनिन द्वारा 1902 में लिखी गई प्रसिद्ध रचना "क्या करें" के कुछ हिस्सों पर आधारित है । लेनिन ने यह पुस्तक अर्थवादियों के खिलाफ संघर्ष में लिखी थी । इस पुस्तक में लेनिन ने एक जगह लिखा है, "सभी देशों का इतिहास यह बताता है कि मजदूर वर्ग मात्र अपने प्रयत्नों से केवल ट्रेड-यूनियन चेतना पैदा करने में सफल होता है, याने यह धारणा पैदा कर पाता है कि यूनियनों के रूप में अपना संगठन करना, मालिकों से लड़ना और आवश्यक श्रम-कानून बनवाने के लिये सरकार पर दबाव डालना जरूरी है, इत्यादि । परन्तु समाजवाद का सिद्धांत उन दार्शनिक, ऐतहासिक एवं आर्थिक सिद्धांतो से उत्पन्न हुआ है, जिनका सम्पत्तिवान वर्गों के शिक्षित प्रतिनिधियों, बुद्धिजीवियों ने प्रतिपादन किया था ।"(क्या करें? , लेनिन संकलित रचनाएं,दस खण्डों में, खण्ड 2,पृष्ठ 53 हिन्दी से) इसके अलावा "क्या करें ? " के कुछ अन्य उद्धरणों से वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि सर्वहारा आर्थिक संघर्षोें से ट्रेड यूनियन संबंधी सबक के अलावा कुछ और नहीं सीख सकते हैं और जो कुछ वे इससे सीखते हैं उसमें कोई राजनीतिक सबक नहीं सीखा जा सकता है । उनकी राय में सर्वहारा में किसी प्रकार की राजनीतिक चेतना पैदा नहीं हो सकती है । सर्वहारा में राजनीतिक चेतना वर्ग के बाहर से ही पहुँचाई जा सकती है । और सर्वहारा तक इस चेतना को पहुँचाने का काम क्रांतिकारी बुद्धिजीवी करते हैं क्योंकि यह चेतना उनके पास होती है और वे इस चेतना के वाहक होते हैं । वे यह भी सोचते हैं कि आर्थिक चरण से संघर्ष के राजनीतिक चरण में संक्रमण संभव है लेकिन यह सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी की मदद से ही हो सकता है ।
यह सच है कि यदि हम लेनिन के इन उद्धरणों का मूल्यांकन अलग से करें तो इनकी अंतरवस्तु और मार्क्स और एंगेल्स की राय के बीच अंतर्विरोध दिखाई देता है । इस ऊपरी अंतर्विरोध का समाधान केवल तभी संभव है जब लेनिन के इन उद्धरणों को उनके सही संदर्भ में देखा जाए । लेकिन बहुत सारे कम्युनिस्ट ऐसा नहीं करते हैं और इसकी बजाय एक अजीब तर्क से इस अंतर्विरोध को हल करने की कोशिश करते हैं - यह तर्क है कि ये सभी बातें (कि सर्वहारा संघर्षों का वस्तुगत रास्ता वर्ग संघर्ष की उच्चतर अवस्था की दिशा में उठने का है, कि सर्वहारा अपनी वर्गीय वृत्ति के बलबूते पर राजनीतिक संघर्ष खड़े कर सकता है, कि उनके बीच राजनीतिक चेतना विकसित होती है) प्रथम इन्टरनेशनल के चरण में तो सही थी लेकिन अब साम्राज्यवाद के युग में यह सच नहीं है। क्योंकि साम्राज्यवाद के युग में संशोधनवाद -सुधारवाद सर्वहारा आंदोलन से बाहर एक शक्ति बन चुका है जिसके परिणामस्वरूप संशोधनवाद और सुधारवाद का प्रवाह इतना ज्यादा मजबूत है कि अब सर्वहारा संघर्ष अपने वस्तुगत विकास की प्रक्रिया से बुर्जुआ व्यवस्था के तख्ता पलट की ओर बढ़ने में समर्थ नहीं है और यहाँ तक कि सर्वहारा खुद अपनी पहलकदमी पर राजनीतिक संघर्ष भी खड़े नहीं कर सकता है । इस प्रश्न पर विस्तार से चर्चा हम बाद में करेंगे । लेकिन इस तरह के तर्क से मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतो पर ही सवाल खड़े हो जाते हैं क्योंकि अगर संशोधनवाद-सुधारवाद सर्वहारा को बुर्जुआ विचारधारा के दायरे में सीमित रख सकता है, अगर बाहर से क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के सचेतन हस्तक्षेप के बिना बुुर्जुआ व्यवस्था के तख्ता पलट की दिशा में या राजनीतिक संघर्ष खड़े करने की दिशा में आगे बढ़ना असंभव है, तो हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि साम्राज्यवाद के युग में सर्वहारा आंदोलन में बुर्जुआ व्यवस्था के तख्ता पलट या पूंजीपतियों के विरूद्ध राजनीतिक संघर्ष खड़े करने की कोई वस्तुगत प्रवृत्ति मौजूद नहीं है । लेकिन यह मार्क्सवाद का बुनियादी सिद्धांत है-कि चूंकि सर्वहारा ही एकमात्र क्रांतिकारी वर्ग है, इसलिए केवल सर्वहारा ही पूंजीवाद को उखाड़ फेंक सकता है और समाज को समाजवाद की ओर आगे ले जा सकता है । जो भी हो, आईए "क्यों करें?" से लेनिन के उद्धरणों के संदर्भ पर वापस लौटते हैं । यदि हम पहले उद्धरण की जाँच करें जहाँ लेनिन कहते हैं कि अपने प्रयासों से सर्वहारा सिर्फ ट्रेड यूनियन चेतना का ही विकास कर सकता है, तो हम देखेंगे कि सरकार पर श्रम कानूनों को पारित कराने के लिए दवाब डालने को भी लेनिन ट्रेड यूनियन चेतना का ही नाम देते हैं । लेकिन जैसाकि हमने पहले देखा है, मार्क्स ने कहा था: " किसी फैक्टरी में या किसी व्यवसाय में भी, हड़तालों आदि के जरिए अलग अलग पूजींपतियों को और अधिक छोटा कार्य दिवस मानने के लिये मजबूर करना विशुद्ध आर्थिक आन्दोलन है । दूसरी ओर, आठ घंटे के कार्य दिवस आदि का कानून मनवाने का आन्दोलन राजनीतिक आन्दोलन है " (फ्रेडरिक बोलते के नाम माकर््स का पत्र- माकर््स एंगेल्स चुनिंदा पत्राचार 23 नवम्बर 1871) । लेनिन ने भी "क्या करे?" में मार्क्स के इसी पैरा को उद्धत किया है । लेनिन ने यहाँ राजनीतिक आन्दोलन निर्माण की चेतना को राजनीतिक चेतना कहा है । "क्या करे ?" वर्ष 1902 में लिखी गई थी । जो लोग "क्या करें?" से मात्र कुछ उद्धरण देकर लेनिन के मत को समग्रता में पेश करने की कोशिश करते हैं, वे शायद इस बात को भूल जाते हैं कि "क्या करें ?" लिखने से कुछ साल पहले लेनिन ने 1885 में लिखी एक रचना ‘ए प्रोग्राम ऑफ सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी’ और उसकी व्याख्या में भविष्य की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए कार्यक्रम का मसौदा तैयार किया था और उसी रचना में कार्यक्रम के विभिन्न बिंदुओं की व्याख्या भी पेश की थी । उस लेख में कार्यक्रम में वर्ग चेतना का अर्थ बताते हुए लेनिन ने लिखा:"मजदूरांे की वर्ग चेतना का अर्थ है मजदूरों की यह समझ कि उनकी हालत को सुधारने और मुक्ति हासिल करने का एकमात्र उपाय यही है कि वे पूंजीपतियों और बड़ी फैक्टरियों द्वारा उत्पन्न फैक्टरी मालिकों के वर्ग के खिलाफ संघर्ष चलाए । मजदूरों की वर्ग चेतना का यह भी अर्थ है कि वे यह समझें कि किसी एक देश के सभी मजदूरों के हित एक समान हैं, कि वे सब मिलकर एक ही वर्ग का हिस्सा हैं जो समाज के अन्य सभी वर्गों से भिन्न हैं । और अंत में, मजदूरों की वर्ग चेतना का अर्थ है मजदूरों की यह समझदारी कि अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्हें उसी तरह से राज्य के कार्यों को प्रभावित करने के लिये काम करना होगा जैसे भूस्वामियों और पूंजीपतियों ने किया है और अब भी कर रहे हैं ।" (सामाजिक जनवादी पार्टी के कार्यक्रम का मसौदा और व्याख्या लेनिन संकलित रचनाएं, खण्डं 2 पृष्ठ 112-113 अंग्रेजी से )। इसके तुरंत बाद, उन्होने बताया: "मजदूर किस तरह से यह सब समझदारी हासिल करते है "? (वही) इस बारे में बताते हुए लेनिन ने इस बारे में चर्चा की कि कैसे पूंजीपतियों के विरूद्ध अपने संघर्ष में मजदूर वर्ग चेतना हासिल करते हैं । उन्होनें इस बारे में भी चर्चा की कि वे कैसे अपनी हड़तालों और संघर्षों से सीखते हैं । इन संघर्षो से सीखे जाने वाले सबकों की रूपरेखा खींचते हुए, लेनिन ने आगे लिखा: "मजदूर समुदाय इस संघर्ष से सीख लेता है, प्रथम .....मजदूर समग्रता में शोषण की सारवस्तु और उसकी अहमियत को समझना सीखता है, वह पूंजी द्वारा श्रम के शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को समझना सीखता है । दूसरे, इस संघर्ष की प्रक्रिया में मजदूर अपनी शक्ति का परीक्षण करते हैं, संगठित होना सीखते हैं, संगठन की जरूरत और उसकी अहमियत को समझना सीखते हैं । इस संघर्ष के विस्तार और टकरावों की बढ़ती बारंबारता के कारण अपरिहार्य तौर पर संघर्ष का फैलाव होता है, मजदूरों के बीच एकता, एकजुटता की भावना विकसित होती है - पहले एक इलाके विशेष के मजदूरों में, और फिर पूरे देश के मजदूरों में, समूचे मजदूर वर्ग में । तीसरे, यह संघर्ष मजदूरों की राजनीतिक चेतना को विकसित करता है । मजदूरों के रहन सहन के हालात इस तरह के होते हैं कि उनके पास न तो आराम का समय होता है और न ही राज्य की समस्याओं के बारे में सोचने का अवसर होता है । दूसरी ओर, अपनी रोजाना की जरूरतों के लिए फैक्टरी मालिकों के खिलाफ मजदूरों के संघर्ष उन्हें स्वतः और अपरिहार्य रूप में राज्य और राजनीतिक सवालों के बारे में सोचने के लिये प्रेरित करते हैं, यह सोचने के लिये प्रेरित करते हैं कि रूसी राज्य किस तरह से शासित हो रहा है, किस तरह से कायदे-कानून बनाए जाते हैं और किसके हितों की पूर्ति होती है । फैक्टरी में होने वाला प्रत्येक टकराव मजदूरों को अनिवार्य रूप से राज्य के कानूनों और प्रशासन के प्रतिनिधियों के खिलाफ ला खड़ा करता है" । (वही) यहाँ यह बात नोट की जानी चाहिए कि जब लेनिन वर्ग चेतना की बात कर रहे थे तो उनका अर्थ समाजवादी चेतना नहीं था । वर्ग चेतना से उनका जो भी अर्थ था, उसके बारे में भी उन्होनें बताया कि उसकी उत्पत्ति सर्वहारा के संघर्षों के अनुभवों से होती है । दूसरे, यहाँ लेनिन ने साफ तौर पर बताया है कि सर्वहारा की राजनीतिक चेतना का विकास इन आर्थिक संघर्षों से भी होता है । इसके विपरीत, "क्या करें ?" में लेनिन कहते हैं कि अपने आप, अपने संघर्षों से सर्वहारा सिर्फ ट्रेड यूनियन चेतना ही हासिल कर सकता है । यह फर्क क्यों है ? यदि हम विस्तार में जाऐं, तो हम पाऐंगे कि लेनिन ने 1885 में जिस चीज को वर्ग चेतना कहा था उसी चीज को 1902 में उन्होंने ‘क्या करें?’ में टेªड यूनियन चेतना का नाम दिया । यह बात "क्या करंे ?" से लिये गये उद्धरण के दूसरे भाग से और भी ज्यादा साफ हो जाती है । यहाँ लेनिन ने वर्ग चेतना को ट्रेड यूनियन चेतना से भिन्न नहीं बताया है, इसकी बजाय उन्होनें समाजवादी चेतना को भिन्न बताया है ।
यह बात लेनिन ने ‘क्या करें?’ में भी कही थी कि आर्थिक संघर्षों के जरिए राजनीतिक चेतना का विकास हो सकता है । इस पुस्तक के आखिर के एक अघ्याय में एक फुटनोट में उन्होने लिखा:-"
बहुधा आर्थिक संघर्ष स्वतःर्स्फूत ढंग से, अर्थात "क्रांतिकारी कीटाणुओं, यानि बुद्धिजीवियों" के हस्तक्षेप के बिना ही, वर्ग-चेतन सामाजिक-जनवादियों के हस्तक्षेप के बिना ही, राजनीतिक रुप धारण कर लेता है। उदाहरण के लिये समाजवादियों के कोई हस्तक्षेप न करने पर भी ब्रिटिश मजदूरों के आर्थिक संघर्ष ने राजनीतिक रुप धारण कर लिया । लेकिन सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार यही खत्म नहीं हो जाता कि वे आर्थिक आधार पर राजनीतिक आंदोलन करें़़़़़ ; उनका कार्यभार इस ट्रेड यूनियनवादी राजनीति को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक संघर्ष में बदलना और आर्थिक संघर्ष से मजदूरों में राजनीतिक चेतना को जो चिंगारियाँ पैदा होती हैं, उनका इस्तेमाल इस मक्सद से करना है कि मजदूरों को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चैतना के स्तर तक उठाया जा सके" । ;क्या करें ?, लेनिन संकलित रचनाएं दस खण्डो में खण 2, पृष्ठ105-106द्ध यहाँ लेनिन ने जिस बात को सामने रखा है वह यह है कि आर्थिक संघर्षों के भीतर राजनीतिक चेतना की चिंगारियाँ पैदा होती हैं , आर्थिक संघर्ष के भीतर स्वतःस्फूर्त रूप में राजनीतिक चेतना जागृत होती है और कम्यूनिस्टों का यह काम होता है कि इस जागृति को उत्प्रेरित करें और कम्यूनिस्ट चेतना के स्तर तक उठाऐं ।
ऐसा क्यों हुआ कि जिस बात को लेनिन ने 1895 में वर्ग चेतना कहा था, उसी बात को 1902 में उन्होनें ट्रेड यूनियन चेतना का नाम दिया ? 1902 में परिस्थिति बदल गई थी - उस समय सर्वहारा संघर्ष के विकास में अवरोध के तौर पर अर्थवादियों का उभार हो चुका था जो सर्वहारा को आर्थिक संघर्ष तक सीमित रखना चाहते थे । वे सर्वहारा तक समाजवादी विचारधारा ले जाने के विरोधी थे और चाहते थे कि सर्वहारा की राजनीतिक चेतना उस हद तक वर्ग चेतना तक सीमित रहे जिस हद तक वे अपनी जन्मजात वर्ग वृत्ति के जरिए उसे हासिल कर सकें । लेनिन ने इस मुद्दे पर इसलिये जोर दिया था क्योंकि वे सर्वहारा तक समाजवादी विचारधारा पहुँचाने की जरूरत के सवाल को जोरदार तरीके से पेश करना चाहते थे । और यह स्वाभाविक था, और परिस्थिति की माँग भी थी कि सर्वहारा के अपने संघर्ष, आर्थिक संघर्ष से उत्पन्न होने वाली वर्ग चेतना को उन्होनें महत्व नहीं दिया । यह एक निर्विवाद तथ्य है कि अगर समाज में समाजवादी या कम्यूनिस्ट विचारधारा स्थापित हो जाती है तो इसके बिना वर्ग चेतना अधूरी ही रहेगी । लेकिन लेनिन की रचनाओं से यह तो स्पष्ट है कि समाजवादी चेतना और वर्ग चेतना को एक मानना गलत होगा । पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सर्वहारा को एकजुट करने की सोच और चाहत, संघर्षों के जरिए सरकार से अपनी वर्गीय मांगो को मनवाने के लिये जरूरी ताकत को संगठित करने की जरूरत और शोषण की समाप्ति के लिये पूंजीपति वर्ग का तख्ता पलटने की जरूरत की समझदारी - ये सब बातें वर्ग चेतना की बातें हैं जिन्हें सर्वहारा कम्यूनिस्टों की भूमिका के बिना खुद अपने संघर्षों के दौरान हासिल कर सकता है । लेकिन समाजवाद की अवधारणा, समाजवाद का सिद्धांत सर्वहारा संघर्ष से नहीं उपजता है, इसे सर्वहारा के संघर्षों के दायरे के बाहर से उस तक पहुंचाया जाना होता है ।
"क्या करें ?" लिखते समय, लेनिन ने नार्दर्न लीग नामक एक ग्रुप के कार्यक्रम के बारे में चर्चा की और कहा कि समाजवाद को सर्वहारा का वर्ग हित कहना गलत होगा, और उन्होनें इसे अत्यधिक खतरनाक बताया । नार्दर्न लीग के नाम अपने पत्र में उन्होनें लिखा - "बिन्दु 2 अत्यधिक गलत, अस्पष्ट और खतरनाक वक्तव्य से शुरू करते हैं: "समाजवाद को सर्वहारा का वर्गीय हित मानते हुए।" "इन शब्दों के द्वारा समाजवाद को "सर्वहारा का वर्गीय हित" माना गया है । और यह धारणा पूरी तरह से गलत है । खास कर, मौजूदा वक्त में, जब सर्वहारा के वर्गीय हितों की अत्यधिक संकीर्ण परिभाषा काफी ज्यादा प्रचलन में है, ऐसी परिभाषा स्वीकार्य नहीं हो सकती है और इसे सिर्फ तभी स्वीकार किया जा सकता है जब "वर्ग हित" का अभिप्राय अत्यधिक व्यापक अर्थ में लगाया जाए । "वर्ग हित" सर्वहारा को एकजुट होने, पूंजीपतियों के खिलाफ संघर्ष करने, अपनी मुक्ति की पूर्व शर्तों के बारे में सोचने के लिये प्रेरित करता है । "वर्ग हित" उन्हें समाजवाद के प्रति ग्रहणशील बनाता है । लेकिन सर्वहारा के वर्ग संघर्ष की विचारधारा के तौर पर समाजवाद किसी भी विचारधारा की उत्पत्ति, विकास और दृढ़ीकरण की सामान्य शर्तों के अघ्यधीन होता है ; दूसरे शब्दों में , यह सकल मानव ज्ञान पर आधारित है, यह उच्च स्तर के वैज्ञानिक विकास की मांग करता है, वैज्ञानिक कार्य की मांग करता है , आदि ......आदि । सिद्धान्तकार लोग समाजवाद का सर्वहारा वर्ग संघर्ष में प्रवेश कराते हैं जो पूंजीवादी संबंधों के आधार पर स्वतः स्फूर्त तौर पर विकसित होता है । बिन्दु 2 द्वारा प्रस्तुत विचार वर्ग संघर्ष के साथ समाजवाद के वास्तविक संबंध पर पूर्णतया झूठी रोशनी डालता है"। (नार्दर्न लीग के नाम पत्र, लेनिन, संकलित रचनाऐं, खण्डं 6, पृष्ठ 161) यहाँ नोट करने वाली बात यह है कि यहाँ लेनिन ने उस चीज को वर्ग हित बताया है जो पूंजीवादी संबंधों पर आधारित वर्ग संघर्ष से स्वतः स्फूर्त तौर पर उभरता है । यही वजह है कि लेनिन ने समाजवाद को वर्ग हित मानने की बात को न सिर्फ गलत बल्कि खतरनाक बताया है । क्योंकि यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें इस सच को खारिज करना होगा कि समाजवाद का जन्म स्वतः स्फूर्त वर्ग संघर्ष से नहीं होता, इसे बाहर से उस तक पहुंचाया जाना होता है । लेकिन अगर कोई इसका अर्थ यह लगाता है कि समाजवाद सर्वहारा के वर्ग हित के खिलाफ है तो यह एक बड़ी गलती होगी । यहाँ भी लेनिन की रचनाओं के पिछले उद्धरण से हम यह कह सकते हैं कि इस सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में सर्वहारा की वर्गीय स्थिति ही उसे अपनी मुक्ति की पूर्व शर्तों के बारे में विचार करने के लिये बाघ्य
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